छोटी हो या बड़ी, हर किसी आपदा के बाद उससे हुवे जान-माल के नुकसान के साथ ही हमारे समाचार माध्यमों द्वारा देश-दुनिया के बीच परोसी जाने वाली मसालेदार व झंझकोड़ कर रख देने वाली मानवीय त्रासदी की खबरें हर किसी को यह सोचने पर विवश कर देती हैं कि काश कुछ कर के इस आपदा को रोका जा सकता।
हर आपदा को हम रोक पायेंगे या नहीं यह निश्चित ही विवाद का विषय हो सकता हैं, पर आपदा घटित होने से पहले प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले संकेतो को समझ कर हम आपदा से होने वाली क्षति को कम जरूर कर सकते हैं।
आपदाजनित क्षति
वैसे देखा जाये तो ज्यादातर आपदाये – बाढ़ हो या चक्रवात या फिर भूकम्प – निरन्तरता में हमेशा से चली आ रही सामान्य प्राकृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ी हैं, और ज्यादातर स्थितियों में इनको रोक या नियन्त्रित कर पाने लायक वैज्ञानिक या तकनीकी क्षमता अब तक हम प्राप्त नहीं कर पाये हैं – सो सच कहें तो आपदाओं को रोक पाना हमारे बस में नही हैं।
यहाँ स्वर्णिम पक्ष यह हैं कि घटित होने को रोक पाने में असमर्थ होने पर भी हम अपने प्रयासों से इन आपदाओं से होने वाले नुकसान व मानवीय त्रासदी को काफी कम कर सकते हैं।
हमारी सनक
इस परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि ज्यादातर प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली क्षति वास्तव में या तो प्रकृति को नियंत्रित कर सकने के हमारे अतिआत्मविश्वास का परिणाम होती हैं, या फिर वास्तविकता को नजरअंदाज कर जोखिम लेने की हमारी सहज मानवीय प्रवृत्ति का।
अब वो तटबन्ध हो या बाँध, क्या इनसे मिली सुरक्षा के कारण हम ऐसे क्षेत्रों में बसना शुरू नहीं कर देते हैं जो हमेशा से ही बाढ़ से प्रभावित होते रहे हैं?
फिर कई बार लम्बे समय से क्षेत्र में आपदा के न घटित होने के कारण हम क्षेत्र के आपदा सुरक्षित होने की गलतफहमी पाल लेते हैं, और कभी जान-बूझ कर तो कभी अनजाने में सुरक्षा उपायों की अवहेलना करने लगते हैं।
ऐसा ही यहाँ उत्तराखण्ड में भूकम्प को ले कर हो भी रहा हैं। 29 मार्च 1999 को आये 6.8 परिमाण के चमोली भूकम्प के बाद से यहाँ कोई विनाशकारी भूकम्प नहीं आया हैं और समय बीतने के साथ हम में से ज्यादातर को भूकम्प इस क्षेत्र की नियति से कहीं ज्यादा एक अपवाद लगने लगा हैं। फिर लम्बे समय से कुमाऊँ क्षेत्र के भूकम्प से प्रभावित न होने के कारण शायद वहाँ के निवासियों ने भूकम्प को केवल गढ़वाल क्षेत्र को प्रभावित करने वाली आपदा मान लिया हैं।
आज हमारे चारों और तेजी से हो रहे अनियन्त्रित व अनियोजित निर्माण के साथ ही इस सब के प्रति सक्षम प्राधिकारियों व नियामक संस्थाओं की उदासीनता क्या हमारी भूकम्प से सुरक्षित होने की गलतफहमी का प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं हैं ?
जिन्दगी एक जुवा
सो आज हम में से हर कोई, जानते-बूझते झटपट में सम्भावित लाभ के दृष्टिगत जोखिम लेता दिखायी दे रहा हैं। वैसे देखा जाये तो जोखिम लेना हमारी सहज प्रवृत्ति हैं, और हम हर दिन कभी जान-बूझ कर तो कभी अनजाने में अनेको बार जोखिम लेते हैं।
क्या आपने कभी सोचा हैं कि आपके ज्यादातर फैसले – चाहें वो सड़क पार करने के हो या फिर आगे चल रहे वाहन को ओवरटेक करने के – अन्तिम निर्णय लेने से पहले आपका दिमाग जोखिम आंकलन कर आपकी सुरक्षा के प्रति स्वयं को आश्वस्त करता हैं?
वैसे यह सब इतनी तेजी व सहजता से होता हैं कि ज्यादातर स्थितियों में हमको इसका आभास तक नहीं हो पाता हैं।
फिर देखा जाये तो मानव सभ्यता के विकास के साथ ही हमारी आर्थिक, सामाजिक व वैज्ञानिक प्रगति में भी हमारी जोखिम लेने की इस प्रवत्ति का बड़ा योगदान रहा हैं, और इसके बिना तो हम आज भी बस कंदराओं में रह कर शिकार व जंगलो में मिलने वाले कंद-मूल के भरोसे ही जी रहे होते।
पर आज यहाँ हमारे द्वारा आपदाओं के परिप्रेक्ष में लिया जा रहा जोखिम न ही किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिये है, और न ही इससे मानवता का ही कोई भला होने वाला हैं।
सच मानिये – यह जोखिम एक जुवे की तरह हैं जिसमें हमारा एक दिन हारना तय हैं, पर कोई नहीं जानता कि असल में वो दिन कब आयेगा। शायद यही अनिश्चितता हमें जोखिम लेने को प्रेरित भी करती हैं।
आप और मैं, दोनो ही जानते हैं कि जल्द ही उत्तराखण्ड को एक बहुत बड़े भूकम्प का झटका झेलना हैं – आखिर 1 सितम्बर, 1803 के 7.5 परिमाण के गढ़वाल भूकम्प के बाद से यहाँ कोई बड़ा भूकम्प जो नहीं आया हैं। सम्भावित भूकम्प का यह झटका वर्षो की मेहनत से बनायीं गयी अवसंरचनाओं कुछ ही मिनटों में क्षतिग्रस्त व ध्वस्त कर हमारी अर्थव्यवस्था सालो पीछे धकेल सकता हैं।
यह सब जानने-समझने के बाद भी क्या हम सब केवल यही मान कर क्षणिक लाभ के लालच में इस जोखिम को नजरअंदाज नही कर रहे हैं कि ऐसा कम से कम हमारे जीवनकाल में तो नहीं होगा ?
अकेले भूकम्प नहीं, हर आपदा के प्रति हमारा यही रवैया हैं – सो ऐसे में आपदाओं का जोखिम या उनसे होने वाली क्षति अपने आप तो कम होने से रही।
प्रकृति सर्वशक्तिमान
यहाँ पर महत्वपूर्ण यह तथ्य हैं कि हमारे द्वारा लिया जा रहा जोखिम प्रकृति के सापेक्ष हैं, जिसकी क्षमता के बारे में हमारी जानकारी तमाम शोध व अध्ययनों के बाद भी आज तक सीमित ही हैं।
अतः सच कहें तो आज पूरे विश्वास के साथ यह आंकलन कर पाना सम्भव नहीं है कि आने वाले समय में प्रकृति हमारे द्वारा निरन्तरता में उसके कार्यो में किये जा रहे हस्तक्षेप के सापेक्ष किस प्रकार का व्यवहार करेगी।
फिर यहाँ प्रकृति के व्यवहार को प्रभावित कर सकने वाले परिवर्तनशील अवयव भी तो इतने ज्यादा है कि इन सब को किसी एक सूत्र में समाहित कर पाना भी किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं हैं, और इन सभी अवयवों के बारे में हमारी आधी-अधूरी जानकारी समस्या की जटिलता को बढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं करती।
इस परिप्रेक्ष में हमारे पास-पड़ोस में अभी हाल में घटित आपदाओं का पुनरावलोकन इस सत्य से सहज ही साक्षात्कार करा सकता हैं, और शायद उसके बाद हमारे पास प्रकृति को सर्वशक्तिमान मानने के आलावा कोई और विकल्प बचे ही ना।
साल भर पहले तक, वैज्ञानिक हो या फिर हमारे जोखिम विशेषज्ञ या फिर पर्यावरणविद – किसी को भनक तक नहीं थी कि यहाँ हिमनदों से पोषित होने वाली नदियों में जाड़ो में बाढ़ भी आ सकती है, और वो भी क्षेत्र में वर्षा हुवे बिना।
इस मौसम में हिमनदों से बर्फ के न गलने के कारण इन नदियों का जल स्तर अपने न्यूनतम स्तर पर जो होता हैं।
पर 7 सितम्बर 2021 को ऋषिगंगा व धौलीगंगा नदियों में आये अप्रत्याक्षित सैलाब ने हमारी इस धारणा व विशेषज्ञों के आंकलन के साथ ही उक्त के आधार पर किये गये निवेश की कलई खोल कर रख दी।
अब यह कोई अकेला उदहारण या अपवाद भी नहीं हैं – पिछले ही साल मानसून की औपचारिक व आधिकारिक विदाई की घोषणा के बाद एक बार फिर से उत्तराखण्ड अक्टूबर में बारिश व भू-स्खलन से प्रभावित हुवा था, और इस प्रकार की अप्रत्याक्षित वर्षा का आंकलन हमारे जोखिम विशेषज्ञों के द्वारा नहीं किया गया था।
वो तो गनीमत हैं कि मौसम विभाग ने समय रहते चेतावनी दे दी जिसके कारण क्षति को एक हद तक सीमित किया जा सका।
अब इन सरल-सीधे उदाहरणो का उद्देश्य हमारे वैज्ञानिको व आपदा प्रबन्धको के ज्ञान व कौशल पर प्रश्नचिन्ह लगाने से कहीं ज्यादा यह सिद्ध व स्वीकार करना हैं कि प्रकृति से जुड़ी कई पहेलियों को हम आज भी हल नहीं कर पाये हैं, और हमारी आपदा सुरक्षा की राह इस स्वीकारोक्ति के बिना बेहद कठिन हो सकती हैं।
जलवायु परिवर्तन व आपदायें
वैसे तो बिना किसी शोध व अध्ययन के मौसम से जुड़ी हर छोटी-बड़ी घटना की व्याख्या जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में कर देना हर किसी के भी लिये सहज हो चला हैं, परन्तु जलवायु वैज्ञानिक भी तो लम्बे समय से हमें चरम मौसम सम्बन्धित घटनाओ की बारम्बारता व तीक्ष्णता बढ़ने के बारे में चेताते रहे हैं।
इन चेतावनियों की व्याख्या हमारे सन्दर्भ में अत्यधिक वर्षा या बादल फटने की घटनाओ के साथ ही लम्बे समय तक वर्षा के न होने या सूखे जे सन्दर्भ में की जा सकती हैं। शायद 2010, 2012 व 2013 में घटित अप्रत्याक्षित वर्षा व 2021 की जाड़ो की बाढ़ का जलवायु परिवर्तन से कुछ सम्बन्ध हो ?
वैसे हमारे द्वारा इस सन्दर्भ में किये जा रहे कार्यो से लगता नहीं हैं कि हमने इन चेतावनियों व पूर्वानुमानो को गम्भीरता से लिया हैं।
हमारा नजरिया
हमारा ज्ञान व हमारी जानकारी कितनी भी अधकचरी क्यों न हो, हम अपने से ज्यादा समझदार किसी और को मानते नही है, और ज्यादातर स्थितियों में हमारा ज्ञान या जानकारी समाचार माध्यमों या सुनी-सुनायी बातो तक सीमित होती हैं।
अब इसे नीम चढ़ा करेला नहीं तो और क्या कहेंगे कि हम में से ज्यादातर – व्यक्तिगत व आधिकारिक दोनों ही स्थितियों में – विशेषज्ञों से परामर्श लेने को अपनी तौहीन समझते हैं।
सुरक्षा के प्रति हमारी गम्भीरता का आलम यह हैं कि अपने व अपने परिवार के भले के लिये हम नियमित स्वास्थ्य परीक्षण से कतराते हैं, डॉक्टर के परामर्श के बिना केमिस्ट से दवाई ले कर खाने में संकोच नहीं करते हैं, फर्स्ट ऐड बॉक्स हम रखते नहीं, सीट बेल्ट व हेलमेट पहनने से हम कतराते हैं और सक्षम प्राधिकारियों व विशेषज्ञों द्वारा दी जा रही चेतावनियों व सुझावो को हम बेकार की बकबास व अपने निजी कार्यो में दखलंदाजी से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं।।
इस हालत में हमसे आपदा सुरक्षा के लिये कुछ नया करने या स्वेच्छा से विशेषज्ञों द्वारा दिये जा रहे सुझावों पर अमल करने की अपेक्षा करना क्या प्रेमिका की चाँद-तारे तोड़ कर लाने की अपेक्षा के समतुल्य नहीं हैं ?
फिर प्रकृति से भी हमारा कोई सरोकार रह नहीं गया हैं, सो उसके द्वारा दी जा रही चेतावनियां भी हमारे लिये काला अक्षर भैंस बराबर से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
प्रकृति से सामंजस्य
यहाँ यह समझना जरूरी है कि अपने आप को सर्वशक्तिमान समझ कर प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने के स्थान पर उसे नियंत्रित करने की कोशिश से हमें कुछ भी हासिल होने से रहा, और फिर विगत में इस प्रवृत्ति से हुवे नुकसान भी किसी से छुपे नहीं हैं।
ऐसे में हम केवल प्रकृति को समझ कर और उसके साथ सामंजस्य बिठा कर ही सुरक्षित रह सकते हैं। सो आज दरकार हैं तो प्रकृति को समझ कर उसके साथ सामंजस्य बिठा कर जीने का गुर सीखने की, और उस पर ईमानदारी से अमल करने की।
सच कहे तो हमारे पास और कोई विकल्प हैं ही नहीं।
अब यह तो सत्य है कि प्रकृति के पास हमें चौकाने व हतप्रभ करने की असीम क्षमता है और वो ऐसा करती भी रही हैं। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि प्रकृति हमें केवल चौंकाती ही हैं – घटित होने वाली ज्यादातर आपदाओं से पहले वह हमें स्पष्ट या परोक्ष रूप में चेतावनी भी देती हैं – वह निश्चित ही मौका देती है हमें कि हम समय रहते उसके इशारों को समझे व अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करें।
शायद हमने ही जाने-अनजाने प्रकृति से इतनी दूरी बना ली हैं कि आज हमें उसके दिये संकेत या तो दिखायी नहीं दे रहे है या फिर समझ नहीं आ रहे हैं। ऐसे में प्रकृति को भी तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता हैं।
1998 में रुद्रप्रयाग जनपद की मध्यमहेश्वर घाटी में हुवे भू-स्खलनों के कारण 03 गाँव जमींदोज हो गये थे और 100 से ज्यादा लोग मारे गये थे। जैसा की क्षेत्र के लोग बताते हैं 20 अक्टूबर, 1991 के उत्तरकाशी भूकम्प के बाद से मध्यमहेश्वर नदी के प्रवाह को बाधित कर देने वाले भू-स्खलन क्षेत्र के ऊपर की पहाड़ी पर स्थित जंगल में नदी के समान्तर दरारें देखी गयी थी, और 18-19 अगस्त, 1988 को हुवे भू-स्खलन से ठीक पहले जमीन पर स्थित इन दरारों की चौड़ाई में तेजी से वृद्धि हुयी थी।
ऐसा ही कुछ 1998 में पिथौरागढ़ जनपद की काली घाटी में मालपा के आस-पास भी हुवा था जहॉ 18 अगस्त 1998 को हुवे भू-स्खलन के कारण नदी किनारे बने कुमाऊं मण्डल विकास निगम के आवास गृह में रात्रि विश्राम कर रहा कैलाश – मानसरोवर यात्रा का पूरा का पूरा 12वा दल ऊपर पहाड़ी से गिरे पत्थरों व पानी के सैलाब की भेंट चढ़ गया था।
इस घटना से ठीक पहले इस स्थान पर 4 व 14 अगस्त, 1998 को भी ऊपर पहाड़ी से पत्थर गिरे थे। अब इसे सौभाग्य कहना भी ठीक नहीं होगा, पर पत्थर गिरने की उन घटनाओं में केवल कुछ मवेशी मारे गये और कोई मानवीय क्षति नहीं हुयी थी। सो किसी ने भी ऊपर पहाड़ी से गिरने वाले पत्थरों से सम्भावित आपदा के जोखिम का आंकलन करने कि आवश्यकता नहीं समझी।
मालपा व ऊखीमठ इस प्रकार के अकेले उदहारण या अपवाद नहीं हैं। यहाँ घटित अनेकों आपदाओं से पहले प्रकृति ने हमें स्पष्ट चेतावनी दी हैं – कहीं जमीन पर दरारें तो कहीं घर की दीवारों पर, कहीं जमीन का धँसना तो कहीं धारो के जल प्रवाह में अचानक परिवर्तन, और कहीं पहाड़ी ढाल पर लम्बवत खड़े पेड़ो व बिजली के खम्भों का तिरछा होना।
ऐसे में क्या इन आपदाओं से हुवे विनाश के लिये हम भी जिम्मेदार नहीं हैं ?
काश कि कुछ किया होता
अब ये अलग बात है कि यह सब बाते आपदा घटित हो जाने के बाद ही पता चल पायी।
काश – किसी को इन दरारों या ऊपर से गिर रही चट्टानों से सम्भावित जोखिम की गम्भीरता की समझ होती, कोई इन दरारों की चौड़ाई तेजी से बढ़ने या चट्टानों के अचानक गिरने की सूचना किसी सक्षम प्राधिकारी को दे पाता, कोई भू- वैज्ञानिक समय रहते क्षेत्र का सर्वेक्षण कर प्रशासन को स्थिति की गम्भीरता से अवगत करवा देता, प्रशासन इस चेतावनी के आधार पर प्रभावित हो सकने वाले क्षेत्र को खाली करवा देता।
काश की सूची काफी लम्बी हो सकती हैं, और यदि ऐसा कुछ हुवा होता तो शायद मरने वालों का आंकड़ा कुछ कम होता और मर गये लोगो की सूची में शुमार कई लोग आज भी हमारे-आपके व अपने परिवार के साथ होते।
क्या यह सब आपको कुछ करने के लिये उत्साहित नहीं करता है?
सच मानिये – प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर जीवन-यापन करने वाले व प्रकृति को यथोचित सम्मान देने वाले हमारे पुरखे इन संकेतो को हमसे कहीं बेहतर समझते थे।
उस समय उनके लिये समाज की सुरक्षा सर्वोपरि और उसके लिये वह विभिन्न सामाजिक प्रतिबन्धो के द्वारा सुरक्षा हेतु बनाये गये नियमो का अनुपालन सुनिश्चित करवाते थे व साथ ही इन सब के परिप्रेक्ष्य में अपने समुदाय की सुरक्षा की व्यवस्था भी करते थे। इसके बिना इस आपदा प्रवत्त क्षेत्र में मानव संस्कृति का विकास व फैलाव हो ही नहीं पाता।
आज हमें न प्रकृति की समझ हैं और न ही परम्पराओं का ज्ञान – सो नतीजे हमारे सामने हैं।
सुरक्षा हेतु निगरानी
वैसे देखा जाये तो भू-स्खलन आज हमारे लिये एक बड़ी समस्या है और इससे हर साल काफी नुकसान भी होता हैं। वस्तुनिष्ठता से देखा जाये तो तय समयावधि में भू-स्खलन से हुवा नुकसान अन्य किसी भी आपदा से हुवे नुकसान से कही ज्यादा हो सकता हैं।
फिर भू-वैज्ञानिको से बातचीत करने पर पता चलता हैं कि प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले ऐसे अनेको सरल व सहज संकेत है जिनके आधार पर हम समय रहते सम्भावित भू-स्खलन की चेतावती दे सकते हैं।
उपकरण आधारित निगरानी
वैसे देखा जाये तो उपकरणों द्वारा की जा सकने वाली निगरानी का विकल्प तो हमेशा से ही उपलब्ध रहा हैं। और जब 18 सितम्बर, 1880 को नैनीताल में हुवे शेर-का-डाण्डा भू-स्खलन के बाद ऐसा किया जा सकता था, तो फिर आज तकनीक व संचार के क्षेत्र में हुवी अभूतपूर्व प्रगति के बाद भी ऐसा न कर पाने का हमारे पास कोई भी औचित्यपूर्ण कारण नहीं है।
साथ ही यह सत्य भी महत्वपूर्ण है कि नियमित निगरानी से हमें भू-स्खलन की अलावा त्वरित बाढ़ की सम्भावना से जुड़ी जानकारिया भी सहज ही मिल सकती हैं।
पर उपकरणों के द्वारा हर ढाल की निगरानी कर पाना सरल नहीं हैं – ऊंचाई वाले निर्जन क्षेत्रों में इन उपकरणों की सुरक्षा, रख-रखाव, ऊर्जा की व्यवस्था व संचार सुविधाओं का आभाव एक बड़ी चुनौती हैं। साथ ही इसके लिये विशेषज्ञ मानव संसाधन व उपकरणों के सहज उपलब्धता से जुड़ी अनेको तकनीकी कठिनाइयाँ भी हैं। फिर हर ढाल पर उपकरण लगाने के लिये आर्थिक संसाधन जुटाना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं।
ऐसे में उपकरणों का उपयोग कर के काफी ज्यादा आबादी या महत्वपूर्ण अवसंरचनाओं को जोखिम में डालने वाली चुनिन्दा संवेदनशील ढालो या भू-स्खलन क्षेत्रों की नियमित निगरानी तो सम्भव हैं, पर हर किसी ढाल की नहीं।
उपग्रह आधारित निगरानी
वैसे तो सैद्धान्तिक रूप से पृथ्वी की सतह पर होने वाली किसी भी गतिविधि की निगरानी उपग्रह के माध्यम से भी निरन्तरता में की जा सकती हैं, परन्तु इस सम्बन्ध में वैज्ञानिको से परामर्श करने पर कई व्यावहारिक कठिनाइयाँ दृष्टिगत होती हैं।
हमारी सामान्य समझ के विपरीत इस प्रकार की निगरानी कर सकने में सक्षम उपग्रह मौसम की जानकारी या संचार के दृष्टिगत भूमध्य रेखा के ऊपर काफी अधिक ऊंचाई (~ 36000 कि.मी.) पर स्थापित उपग्रहों (geostationary satellite) के विपरीत किसी स्थान विशेष के ऊपर स्थिर नहीं होते है और अपेक्षाकृत कम ऊंचाई (~ 500 – 800 कि.मी.) पर पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं (polar orbiting satellite)। अतः यह उपग्रह एक नियत अन्तराल के बाद ही किसी स्थान विशेष की जानकारी उपलब्ध करवा सकने में सक्षम हैं।
फिर विशेष रूप से उच्च हिमालयी क्षेत्र में अवस्थित तीव्र ढाल वाली संकरी घाटियों की लिये उपग्रह से अत्यन्त सीमित जानकारी ही प्राप्त की जा सकती हैं।
अतः उपग्रह से किसी क्षेत्र की निरन्तरता में निगरानी कर पाना सरल नहीं हैं। फिर यहाँ भी उपग्रह से प्राप्त जानकारियों का विश्लेषण कर सकने में सक्षम विशेषज्ञ मानव संसाधन की सहज उपलब्धता एक चुनौती हैं।
ऐसे में उपग्रह से प्राप्त जानकारियों की आधार पर संवेदनशील क्षेत्रों का निर्धारण कर चिन्हित उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में उपकरणों के माध्यम से सघन व निरन्तर निगरानी करना एक बेहतर विकल्प हो सकता हैं।
आपदा प्रहरी
प्रत्यक्ष रूप से उच्च जोखिम न होने पर भी अन्य चिन्हित क्षेत्रों में अवस्थित ग्राम सभाओ में इस कार्य का उत्तरदायित्व नियत मानदेय के आधार चिन्हित व्यक्ति को दे कर सहजता से भौतिक निगरानी सुनिश्चित की जा सकती हैं।
आपदा घटित होने से पहले प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले संकेतो को जानने-समझने व इनसे सम्भावित खतरों का आंकलन करने के लिये भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग, मौसम विभाग, केन्द्रीय जल आयोग के साथ ही अन्य शोध संस्थानों के सहयोग से प्रशिक्षित कर के इन व्यक्तियों को आपदा प्रहरी के रूप में विकसित किया जा सकता हैं। साथ ही इन आपदा प्रहरियों को खोज एवं बचाव के साथ-साथ प्राथमिक चिकित्सा में भी प्रशिक्षित किया जा सकता हैं।
ग्राम सभा के स्तर पर उपलब्ध व आपदाओं के संकेतो को समझने के लिये प्रशिक्षित यह आपदा प्रहरी नियमित रूप से क्षेत्र का स्थलीय निरीक्षण करने के साथ ही अन्य स्त्रोतों से भी आपदाओं की सम्भावना से सम्बन्धित सूचनाये संकलित कर विभाग को उपलब्ध करवायेंगे।
आपदा प्रहरी द्वारा उपलब्ध करवायी गयी जानकारियों के आधार पर विशेषज्ञों के द्वारा आपदा कि सम्भावना की पुष्टि किये जाने की स्थिति में जहाँ एक ओर समय रहते प्रभावित हो सकने वाले समुदायों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानान्तरित किया जा सकेगा, तो वही दूसरी ओर आपदा को रोकने व प्रभावों को सीमित किये जाने हेतु विशेषज्ञों के सहयोग से उपयुक्त प्रयास भी किये जा सकेंगे।
अब ऐसा मान लेना भी उचित नहीं होगा कि हमारा यह आपदा प्रहरी हर आपदा का पूर्वानुमान कर ही लेगा – निश्चित ही अनेको आपदाये आज की ही तरह बिना किसी चेतावनी के घटित होगी।
फर्क सिर्फ इतना होगा कि तब आपदा प्रभावित समुदाय के बीच एक प्रशिक्षित व्यक्ति मौजूद होगा, जो आपदा से जुड़ी छोटी-बड़ी सूचनायें उपलब्ध करवायेगा, और औपचारिक प्रतिवादन बलो के आपदा प्रभावित क्षेत्र में पहुंचने तक मानव जीवन बचाने के लिये खोज, बचाव व प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था करने के साथ ही प्रभावित जन-समुदाय का मनोबल बनाये रखेगा।
औपचारिक प्रतिवादन बलो के आपदा प्रभावित क्षेत्र में पहुंचने के बाद आपदा प्रहरी इनके प्रचलनों को समुदाय के सहयोग से व्यवस्थित रूप से संचालित करने में सहायता करेगा।
अब ऐसा भी नहीं हैं कि हमारे आपदा प्रहरी का काम केवल आपदा का पूर्वानुमान या आपदा प्रतिवादन तक सीमित होगा।
सच कहे तो आपदा प्रहरी का असल काम आपदा पूर्व की अवधि में होगा, जब वह समुदाय में आपदा प्रतिरोध्यता (resilience) लाने के लिये काम करेगा और इन प्रयासों के दूरगामी व सुखद परिणाम होना तय है।
आपदा पूर्व की अवधि में आपदा प्रहरी समुदाय में आपदा सम्बन्धित जागरूकता लाने के लिये प्रयास करेगा – सुनिश्चित करेगा की हर किसी को पता हो की आपदा के समय क्या करना हैं, और क्या नहीं।
साथ ही वह आपदा सुरक्षा सम्बन्धित तकनीकों के प्रचार – प्रसार व स्वैच्छिक अनुपालन के लिये भी कार्य करेगा, विभाग के सहयोग से इस हेतु कार्यशाला व प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करवायेगा और साथ ही लोगो को खोज एवं बचाव तथा प्राथमिक चिकित्सा के गुर भी सिखायेगा ताकि आपदा की स्थिति में हर कोई अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सक्षम हो पाये।
आपदा पूर्व की अवधि में आपदा प्रहरी द्वारा किये जाने वाले काम यही खत्म नहीं होते हैं।
इस अवधि में वह क्षेत्र में पूर्व में घटित आपदाओं की जानकारियाँ एकत्रित करेगा – किस आपदा में ग्राम सभा के कौन से क्षेत्र ज्यादा प्रभावित हुवे थे और कौन सुरक्षित थे, बुजुर्गो से बातचीत कर के जहाँ एक ओर क्षेत्र विशेष के आपदा से प्रभावित होने के कारणों का पता लगायेगा, वही दूसरी ओर क्षेत्र के लोगो के द्वारा आपदा के प्रभावों को सीमित किये जाने हेतु उपयोग में लायी जाने वाली परम्परागत विधियों की जानकारी भी एकत्रित करेगा।
पूर्व में क्षेत्र में घटित आपदाओं की जानकारी से हमारे आपदा प्रबन्धको द्वारा किये जा रहे संकट, घातकता व जोखिम आंकलनों को अधिक सटीक व उपयोगी बनाया जा सकेगा। साथ ही इस जानकारी के उपयोग से जन जागरूकता कार्यक्रमों को स्थान विशेष के परिप्रेक्ष्य में अधिक प्रासंगिक व प्रभावी बनाया जा सकेगा।
फिर एकत्रित की गयी परम्परागत ज्ञान से सम्बन्धित जानकारिया बहुमूल्य तो हैं ही, इनका उपयोग कर के आपदा सुरक्षा के लिये प्रासंगिक, सरल व सस्ते विकल्प भी सहज ही विकसित किये जा सकते हैं।
साथ ही आपदा पूर्व की अवधि में आपदा प्रहरी समुदाय से विचार विमर्श कर क्षेत्र में सम्भावित आपदाओं का सामना करने के लिये सम्बन्धित ग्राम सभा की आपदा प्रबन्धन योजना विकसित करेगा और नियत अन्तराल में इस योजना के अनुरूप सभी हितधारकों द्वारा अपेक्षित कार्यवाही किये जाने व योजना की प्रभाविकता के सत्यापन के लिये मॉक अभ्यास का आयोजन भी करेगा।
इससे ग्राम सभा में रह रहे हर व्यक्ति को साफ तौर पर पता होगा कि आपातकालीन स्थितियों में या आपदा के समय उसे क्या और कैसे करना हैं। इससे आपदा के समय किसी भी प्रकार के संशय या उपरोह की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी और हर कोई पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन कर के समुदाय की सुरक्षा सुनिश्चित कर पायेगा।
आपदा उपरान्त, विशेष रूप से दूर-दराज के क्षेत्र में क्षति के परिमाण की पुष्टि करना हर किसी के लिये कठिन होता हैं और इसके कारण जहाँ एक ओर आपदा प्रबन्धन विभाग को प्रायः जन समुदाय के असंतोष का सामना करना पड़ता हैं तो वही दूसरी ओर प्रभावित जन समुदाय को समय पर राहत नहीं मिल पाती हैं।
अतः आपदा उपरान्त की अवधि में आपदा प्रहरी को आपदा से हुयी क्षति की पुष्टि करने का उत्तरदायित्व भी दिया जा सकता हैं। साथ ही आपदा प्रहरी विभिन्न विभागों द्वारा आपदा उपरान्त किये जाने वाले मरम्मत व पुनर्निर्माण कार्यो की प्रगति व गुणवत्ता से सम्बन्धित जानकारी व किये जा रहे कार्यो से समुदाय की संतुष्टि के स्तर से सम्बन्धित सूचना भी उपलब्ध करवा सकता हैं।
सच कहे तो हमारा यह आपदा प्रहरी बिना कार्मिको वाले हमारे अंधे – बहरे पर राज्य के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण आपदा प्रबन्धन विभाग के आँख व कान के रूप में कार्य करेगा व राज्य को आपदा सुरक्षा की ओर ले जायेगा।
आपदा प्रहरी की उपस्थिति से जन समुदाय व आपदा प्रबन्धन विभाग के मध्य सीधा संवाद स्थापित होगा, और लोग विभाग द्वारा किये जा रहे कार्यो व संचालित योजनाओ में प्रतिभागिता करने को प्रेरित होंगे। सच कहे तो यह जनोन्मुखी आपदा जोखिम न्यूनीकरण व्यवस्था बनाने व आपदा सुरक्षित उत्तराखण्ड का सपना साकार करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
वैसे तो इस सब पर बहुत ज्यादा खर्च नहीं होना है परन्तु यहाँ राज्य के परिप्रेक्ष्य में उपलब्ध सीमित वित्तीय संसाधनों के दृष्टिगत यह महत्वपूर्ण है कि किये जाने वाले सम्पूर्ण व्यय का वहन राज्य सरकार के निवर्तन पर उपलब्ध राज्य आपदा प्रतिवादन कोष (State Disaster Response Fund; SDRF) के क्षमता विकास मद के साथ ही राज्य आपदा न्यूनीकरण कोष (State Disaster Mitigation Fund; SDMF) से भी किया जा सकता है।
साथ ही आवश्यकता पड़ने पर तद्सम्बन्धित कार्यो के लिये केन्द्र सरकार को राष्ट्रीय आपदा प्रतिवादन कोष (National Disaster Response Fund; NDRF) या राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण कोष (National Disaster Mitigation Fund; SDMF) से सहायता उपलब्ध करवाने का अनुरोध किया जा सकता है – इसके लिये बस एक अच्छा सा प्रस्ताव भर बनाना होगा।
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