आप माने या न माने पर ज्यादातर आपदाओं से पहले प्रकृति हमें स्पष्ट या परोक्ष रूप में चेतावनी देती हैं – प्रकृति मौका देती है हमें कि हम समय रहते उसके इशारों को समझे व अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करें।
1998 का मध्यमहेश्वर भू-स्खलन
1998 में रुद्रप्रयाग जनपद की मध्यमहेश्वर घाटी में हुवे भू-स्खलनों के कारण 03 गाँव जमींदोज हो गये थे और 100 से ज्यादा लोग मारे गये थे।
जैसा की क्षेत्र के लोग बताते हैं 20 अक्टूबर, 1991 के उत्तरकाशी भूकम्प के बाद से मध्यमहेश्वर नदी के प्रवाह को बाधित कर देने वाले भू-स्खलन क्षेत्र के ऊपर की पहाड़ी पर स्थित जंगल में नदी के समान्तर दरारें देखी गयी थी, और 18-19 अगस्त, 1988 को हुवे भू-स्खलन से ठीक पहले इन दरारों की चौड़ाई में तेजी से वृद्धि हुयी थी।
1998 का मालपा भू-स्खलन
ऐसा ही कुछ 1998 में पिथौरागढ़ जनपद की काली घाटी में मालपा के आस-पास भी हुवा था जहॉ 18 अगस्त 1998 को हुवे भू-स्खलन के कारण नदी किनारे बने कुमाऊं मण्डल विकास निगम के आवास गृह में रात्रि विश्राम कर रहा कैलाश – मानसरोवर यात्रा का पूरा का पूरा 12वा दल ऊपर पहाड़ी से गिरे पत्थरों व पानी के सैलाब की भेंट चढ़ गया था।
इस घटना से ठीक पहले इस स्थान पर 4 व 14 अगस्त, 1998 को भी ऊपर पहाड़ी से पत्थर गिरे थे। अब इसे सौभाग्य कहना भी ठीक नहीं होगा, पर पत्थर गिरने की उन घटनाओं में केवल कुछ मवेशी मारे गये और कोई मानवीय क्षति नहीं हुयी। सो किसी ने भी ऊपर पहाड़ी से गिरने वाले पत्थरों से सम्भावित आपदा के विषय में गम्भीरता से सोचा ही नहीं।
प्रकृति की चेतावनी
मालपा व ऊखीमठ इस प्रकार के अकेले उदहारण या अपवाद नहीं हैं। यहाँ घटित अनेकों आपदाओं से पहले प्रकृति ने हमें स्पष्ट चेतावनी दी हैं – कहीं जमीन पर दरारें तो कहीं घर की दीवारों पर, कहीं जमीन का धँसना तो कहीं धारो के जल प्रवाह में अचानक परिवर्तन, कही ढाल पर बनी सुरक्षा दीवारों में तनाव और कहीं पहाड़ी ढाल पर लम्बवत खड़े पेड़ो व बिजली के खम्भों का तिरछा होना।
अब ऐसा भी नहीं है कि प्रकृति केवल पहाड़ी ढाल के असंतुलन की ही चेतावनी देती है।
4 अगस्त 1978 को उत्तरकाशी में कनोडिया गाड़ में हुवे भू-स्खलन के बाद भागीरथी के जल प्रवाह में अचानक हुयी कमी की व्याख्या क्षेत्र के लोगो ने अपने पारम्परिक ज्ञान के आधार पर बाढ़ की सम्भावना के रूप में की थी और बिना किसी औपचारिक चेतावनी के नदी के किनारे बसे इलाको को खाली कर दिया था जिसके कारण 6 व 10 अगस्त, 1978 को भू-स्खलन के कारण बनी झील से हुवे जल रिसाव से कोई भी मानव हानि नहीं हुयी।
इसी तरह विशेष रूप से बाढ़ की घटनाओ से पहले नदी के जल प्रवाह में कमी के साथ ही पानी के अचानक गंधला होने के कई उदाहरण उपलब्ध है।
सुरक्षा हेतु निगरानी
भू-वैज्ञानिको से बातचीत करने पर पता चलता हैं कि प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले ऐसे अनेको सरल व सहज संकेत है जिनके आधार पर हम समय रहते सम्भावित आपदा के बढ़ रहे खतरे का आंकलन कर सकते हैं। ऐसे में प्रकृति के द्वारा दी जाने वाली चेतावनियो का पता लगाने के लिये निगरानी कर के हम आपदा से होने वाली क्षति को सहज ही कम भी कर सकते हैं।
उपकरण आधारित निगरानी
वैसे देखा जाये तो उपकरणों द्वारा की जा सकने वाली निगरानी का विकल्प तो हमेशा से ही उपलब्ध रहा हैं। और जब 18 सितम्बर, 1880 को नैनीताल में हुवे शेर-का-डाण्डा भू-स्खलन के बाद ऐसा किया जा सकता था, तो फिर आज तकनीक व संचार के क्षेत्र में हुवी अभूतपूर्व प्रगति के बाद भी ऐसा न कर पाने का हमारे पास कोई भी औचित्यपूर्ण कारण नहीं है।
परन्तु सैद्धान्तिक रूप से सम्भव होने पर भी उपकरणों के द्वारा हर ढाल की निगरानी कर पाना व्यावहारिक नहीं हैं – ऊंचाई वाले निर्जन क्षेत्रों में उपकरणों की सुरक्षा, रख-रखाव, ऊर्जा की व्यवस्था व संचार सुविधाओं का आभाव एक बड़ी चुनौती हैं।
ऐसे में उपकरण आधारित निगरानी को काफी ज्यादा आबादी या महत्वपूर्ण अवसंरचनाओं को जोखिम में डालने वाली चुनिन्दा संवेदनशील ढालो या भू-स्खलन क्षेत्रों तक सीमित किया जा सकता है।
उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत भू-स्खलन व नैनीताल में बलिया नाला भू-स्खलन उपकरण आधारित निगरानी के लिये सर्वथा उपयुक्त है।
उपग्रह आधारित निगरानी
वैसे तो सैद्धान्तिक रूप से पृथ्वी की सतह पर होने वाली किसी भी गतिविधि की निगरानी उपग्रह के माध्यम से निरन्तरता में की जा सकती हैं, परन्तु इसमें भी कई व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं।
हमारी सामान्य समझ के विपरीत इस प्रकार की निगरानी कर सकने में सक्षम उपग्रह मौसम की जानकारी या संचार के दृष्टिगत भूमध्य रेखा के ऊपर काफी अधिक ऊंचाई (~ 36000 कि.मी.) पर स्थापित उपग्रहों (geostationary satellite) के विपरीत किसी स्थान विशेष के ऊपर स्थिर नहीं होते है और अपेक्षाकृत कम ऊंचाई (~ 500 – 800 कि.मी.) पर पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं (polar orbiting satellite)। अतः यह उपग्रह एक नियत अन्तराल के बाद ही किसी स्थान विशेष की जानकारी उपलब्ध करवा सकने में सक्षम हैं।
फिर विशेष रूप से उच्च हिमालयी क्षेत्र में अवस्थित तीव्र ढाल वाली संकरी घाटियों की लिये उपग्रह से अत्यन्त सीमित जानकारी ही प्राप्त की जा सकती हैं।
ऐसे में उपग्रह से प्राप्त जानकारियों की आधार पर किसी क्षेत्र की निरन्तरता में निगरानी तो नहीं की जा सकती है पर इससे संवेदनशील क्षेत्रों का निर्धारण तो किया ही जा सकता हैं। अतः चिन्हित उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में उपकरणों के माध्यम से सघन व निरन्तर निगरानी करना एक बेहतर विकल्प हो सकता हैं।
आपदा प्रहरी
उपकरण व उपग्रह, दोनों से की जाने वाली निगरानी के लिये प्रशिक्षित व अनुभवी मानव संसाधन की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती हैं। फिर इसमें निवेश भी अच्छा – खासा हैं। ऐसे में ग्राम सभा के स्तर पर प्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा भौतिक निगरानी एक सरल, सहज व मितव्ययी विकल्प के रूप में सामने आता हैं।
आपदा घटित होने से पहले प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले संकेतो को जानने-समझने व इनसे सम्भावित खतरों का आंकलन कर वांछित कार्यवाही करने के लिये निश्चित ही इन व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाना होगा। इसके लिये भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग, मौसम विभाग, केन्द्रीय जल आयोग के साथ ही अन्य शोध संस्थानों के सहयोग से एक हफ्ते – दस दिन का प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार कर इन व्यक्तियों को सहज ही आपदा प्रहरी के रूप में तैयार किया जा सकता हैं।
प्रभाविकता व उपयोगिता में वृद्धि के दृष्टिगत इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत इन व्यक्तियों को आधारभूत खोज एवं बचाव, प्राथमिक चिकित्सा व जीवन रक्षक विधियों में प्रशिक्षित करने के साथ-साथ इन्हे आकड़ो का संकलन व विश्लेषण, आपदा प्रबन्धन सम्बन्धित जन जागरूकता, आपातकालीन सूचना सम्प्रेषण, व ग्राम स्तरीय नियोजन से जुड़ी आवश्यक जानकारिया भी दी जा सकती है। ऐसे में आपदा प्रहरी की उपस्थिति ग्राम सभा के साथ-साथ आपदा प्रबन्धन विभाग के लिये भी अपरिहार्य हो जायेगी।
आपदा चेतावनी
ग्राम सभा के स्तर पर उपलब्ध व आपदाओं के संकेतो को समझने के लिये प्रशिक्षित यह आपदा प्रहरी नियमित रूप से क्षेत्र का स्थलीय निरीक्षण करने के साथ ही अन्य स्त्रोतों से भी आपदाओं की सम्भावना से सम्बन्धित सूचनाये संकलित कर विभाग को उपलब्ध करवायेंगे।
आपदा प्रहरी द्वारा उपलब्ध करवायी गयी जानकारियों के आधार पर विशेषज्ञों के द्वारा आपदा कि सम्भावना की पुष्टि किये जाने की स्थिति में जहाँ एक ओर समय रहते प्रभावित हो सकने वाले समुदायों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानान्तरित किया जा सकेगा, तो वही दूसरी ओर आपदा को रोकने व प्रभावों को सीमित करने के लिये विशेषज्ञों के सहयोग से उपयुक्त प्रयास भी किये जा सकेंगे।
अब ऐसा मान लेना भी उचित नहीं होगा कि हमारा यह आपदा प्रहरी हर आपदा का पूर्वानुमान कर ही लेगा – निश्चित ही अनेको आपदाये आज की ही तरह बिना किसी चेतावनी के घटित होगी।
आपदा उपरान्त खोज – बचाव
फर्क सिर्फ इतना होगा कि तब आपदा प्रभावित समुदाय के बीच एक प्रशिक्षित व्यक्ति मौजूद होगा, जो आपदा से जुड़ी छोटी-बड़ी सूचनायें उपलब्ध करवायेगा, और औपचारिक प्रतिवादन बलो के आपदा प्रभावित क्षेत्र में पहुंचने तक मानव जीवन बचाने के लिये खोज, बचाव व प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था करने के साथ ही प्रभावित जन-समुदाय का मनोबल बनाये रखेगा।
औपचारिक प्रतिवादन बलो के आपदा प्रभावित क्षेत्र में पहुंचने के बाद आपदा प्रहरी इनके प्रचलनों को पहले से चिन्हित सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र पर केंद्रित करने तथा समुदाय के सहयोग से व्यवस्थित रूप से संचालित करने में सहायता करेगा।
विशेष रूप से दूर-दराज इलाको में घटित होने वाली आपदा की सूचना की पुष्टि व क्षति का सटीक आंकलन प्रायः एक बड़ी चुनौती होता हैं जिसके कारण राहत एवं बचाव कार्यो में होने वाले विलम्ब के कारण आपदा प्रबन्धको को संचार माध्यमों की आलोचना का सामना करना पड़ता हैं।
आपदा प्रहरी की उपस्थिति से आपदा से हुयी क्षति व प्रभावित क्षेत्र में वांछित संसाधनों से जुड़ी जानकारियो के साथ ही चलाये जा रहे राहत एवं बचाव कार्यो की प्रगति व प्रभाविकता के बारे में भी अद्यतन सूचनाये तत्काल मिल पायेगी।
क्षमता विकास
अब ऐसा भी नहीं हैं कि हमारे आपदा प्रहरी का काम केवल आपदा का पूर्वानुमान या आपदा प्रतिवादन तक सीमित होगा।
आपदा प्रहरी ग्राम सभा के लोगो को आधारभूत खोज एवं बचाव, प्राथमिक चिकित्सा व जीवन रक्षक विधियों में प्रशिक्षित करने के साथ ही जन जागरूकता व आपदा सुरक्षित तकनीकों व विधियों के प्रचार-प्रसार के लिये भी कार्य करेगा। इसके साथ ही वह सम्बन्धित प्राधिकारिओ के सहयोग से भूकम्प सुरक्षित निर्माण तकनीक व अन्य विशिष्ट प्रशिक्षण कार्यक्रमो का आयोजन भी करवायेगा।
इससे जहाँ एक ओर आपदा सुरक्षित तकनीकों व विधियों का स्वैच्छिक अनुपालन सुनिश्चित होगा वही दूसरी ओर किसी भी आपदा की स्थिति में त्वरित प्रतिवादन के लिये प्रभावित क्षेत्र के समीप ही प्रशिक्षित व्यक्ति उपलब्ध होंगे।
आपदा प्रबन्धन योजना
आपदा पूर्व की अवधि में आपदा प्रहरी समुदाय की क्षमताओं व उपलब्ध संसाधनों तथा क्षेत्र में सम्भावित आपदाओं का विवरण भी तैयार करेगा और समुदाय से विचार विमर्श कर आपदाओं का सामना करने के लिये सम्बन्धित ग्राम सभा की आपदा प्रबन्धन योजना विकसित करेगा तथा नियत अन्तराल में इस योजना के अनुरूप सभी हितधारकों द्वारा अपेक्षित कार्यवाही करने व योजना की प्रभाविकता के सत्यापन के लिये मॉक अभ्यास का आयोजन भी करेगा।
इससे ग्राम सभा में रह रहे हर व्यक्ति को साफ तौर पर पता होगा कि आपातकालीन स्थितियों में या आपदा के समय उसे क्या और कैसे करना हैं। इससे आपदा के समय किसी भी प्रकार के संशय या उपरोह की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी और हर कोई पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन कर के समुदाय की सुरक्षा सुनिश्चित कर पायेगा।
सीढ़ीदार खेत जनित भू-स्खलन
वर्तमान में पहाड़ो से हो रहे पलायन के साथ ही विभिन्न सम्बन्धित कारणों से पहाड़ो में खेती के अलाभकारी उपक्रम बन जाने की वजह से परम्परागत रूप से खेती-बाड़ी के लिये उपयोग में लाये जाने वाले सीढ़ीदार खेत बड़े पैमाने में बंजर हो गये हैं।
फिर जब कोई खेती करने वाला ही न हो, तो इन खेतो का रख रखाव करे भी तो कौन?
ऐसे में समय बीतने के साथ इन सीढ़ीदार खेतों के पुश्ते कमजोर व क्षतिग्रस्त हो गये हैं जिसके कारण अधिक वर्षा की स्थिति में इनके पीछे जमा मिट्टी गाड़े घोल के रूप में ढाल पर बह कर कुछ ही दूरी में बड़े भू-स्खलन का रूप ले लेती हैं।
आपदा प्रहरी विशेष रूप से बरसात के मौसम से पहले समुदाय के सदस्यों के साथ मिल कर गाँव के ऊपरी क्षेत्र में स्थित सीढ़ीदार खेतों का निरीक्षण कर ऐसे स्थानों को चिन्हित करेगा जहाँ से आरम्भ होने वाले बहाव से ढाल पर स्थित आबादी व अवसंरचनाओं को क्षति होने की सम्भावना हो। इसके उपरान्त वह जनपद के सम्बन्धित प्राधिकारी से समन्वय कर बरसात आरम्भ होने से पहले ऐसे चिन्हित स्थानों पर पुश्तों की मरम्मत करवायेगा, ताकि सम्भावित आपदा का निदान किया जा सके।
जन जागरूकता व स्वैच्छिक अनुपालन
सच कहे तो आपदा प्रहरी का असल काम आपदा पूर्व की अवधि में होगा, जब वह समुदाय में आपदा प्रतिरोध्यता (resilience) लाने के लिये काम करेगा और इन प्रयासों के दूरगामी व सुखद परिणाम तय है।
आपदा पूर्व की अवधि में आपदा प्रहरी समुदाय में आपदा सम्बन्धित जागरूकता लाने के लिये प्रयास करेगा – सुनिश्चित करेगा की हर किसी को पता हो की आपदा के समय क्या करना हैं, और क्या नहीं।
साथ ही वह आपदा सुरक्षा सम्बन्धित तकनीकों के प्रचार-प्रसार व स्वैच्छिक अनुपालन के लिये भी कार्य करेगा, विभाग के सहयोग से इस हेतु कार्यशाला व प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करवायेगा और साथ ही लोगो को खोज एवं बचाव तथा प्राथमिक चिकित्सा के गुर भी सिखायेगा ताकि आपदा की स्थिति में हर कोई अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सक्षम हो पाये।
जोखिम आंकलन
आपदा पूर्व की अवधि में आपदा प्रहरी द्वारा किये जाने वाले काम यही खत्म नहीं होते हैं।
इस अवधि में वह क्षेत्र में पूर्व में घटित आपदाओं की जानकारियाँ एकत्रित करेगा – किस आपदा में ग्राम सभा के कौन से क्षेत्र ज्यादा प्रभावित हुवे थे और कौन सुरक्षित थे। बुजुर्गो से बातचीत कर के वह क्षेत्र विशेष के आपदा से प्रभावित होने के कारणों का पता भी लगायेगा।
पूर्व में क्षेत्र में घटित आपदाओं की जानकारी से हमारे आपदा प्रबन्धको द्वारा किये जा रहे संकट, घातकता व जोखिम आंकलनों को अधिक सटीक व उपयोगी बनाया जा सकेगा। साथ ही इस जानकारी के उपयोग से जन जागरूकता कार्यक्रमों को स्थान विशेष के परिप्रेक्ष्य में अधिक प्रासंगिक व प्रभावी बनाया जा सकेगा।
परम्परागत ज्ञान
साथ ही आपदा प्रहरी बुजुर्गो से बातचीत कर के क्षेत्र के लोगो के द्वारा आपदा के प्रभावों को सीमित किये जाने हेतु उपयोग में लायी जाने वाली परम्परागत विधियों की जानकारी भी एकत्रित करेगा।
परम्परागत ज्ञान से सम्बन्धित जानकारिया बहुमूल्य तो हैं ही, इनका उपयोग कर के आपदा सुरक्षा के लिये प्रासंगिक, सरल व सस्ते विकल्प भी सहज ही विकसित किये जा सकते हैं। यह जानकारिया वैज्ञानिको को परम्परागत ज्ञान से जुड़े पक्षों पर शोध करने व इनको परिष्कृत कर अधिक उपयोगी बनाने की दिशा में काम करने को भी प्रोत्साहित करेगी।
आपदा की पुष्टि
आपदा उपरान्त, विशेष रूप से दूर-दराज के क्षेत्र में क्षति के परिमाण की पुष्टि करना हर किसी के लिये कठिन होता हैं और इसके कारण जहाँ एक ओर आपदा प्रबन्धन विभाग को प्रायः जन समुदाय के असंतोष का सामना करना पड़ता हैं तो वही दूसरी ओर प्रभावित जन समुदाय को समय पर राहत नहीं मिल पाती हैं।
अतः आपदा उपरान्त की अवधि में आपदा प्रहरी को आपदा से हुयी क्षति की पुष्टि करने का उत्तरदायित्व भी दिया जा सकता हैं। साथ ही आपदा प्रहरी विभिन्न विभागों द्वारा आपदा उपरान्त किये जाने वाले मरम्मत व पुनर्निर्माण कार्यो की प्रगति व गुणवत्ता से सम्बन्धित जानकारी व किये जा रहे कार्यो से समुदाय की संतुष्टि के स्तर से सम्बन्धित सूचना भी उपलब्ध करवा सकता हैं।
सच कहे तो हमारा यह आपदा प्रहरी बिना कार्मिको वाले हमारे अंधे-बहरे पर राज्य के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण आपदा प्रबन्धन विभाग का आँख व कान बन कर राज्य को आपदा सुरक्षा की ओर ले जा सकता है।
आपदा प्रहरी की उपस्थिति से जन समुदाय व आपदा प्रबन्धन विभाग के मध्य सीधा संवाद स्थापित होगा, और लोग विभाग द्वारा किये जा रहे कार्यो व संचालित योजनाओ में प्रतिभागिता करने को प्रेरित होंगे। सच कहे तो यह जनोन्मुखी आपदा जोखिम न्यूनीकरण व्यवस्था बनाने व आपदा सुरक्षित उत्तराखण्ड का सपना साकार करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
वैसे तो इस सब पर बहुत ज्यादा खर्च नहीं होना है परन्तु यहाँ राज्य के परिप्रेक्ष्य में उपलब्ध सीमित वित्तीय संसाधनों के दृष्टिगत यह महत्वपूर्ण है कि किये जाने वाले सम्पूर्ण व्यय का वहन राज्य सरकार के निवर्तन पर उपलब्ध राज्य आपदा प्रतिवादन कोष (State Disaster Response Fund; SDRF) के क्षमता विकास मद के साथ ही राज्य आपदा न्यूनीकरण कोष (State Disaster Mitigation Fund; SDMF) से भी किया जा सकता है।
साथ ही आवश्यकता पड़ने पर तद्सम्बन्धित कार्यो के लिये केन्द्र सरकार को राष्ट्रीय आपदा प्रतिवादन कोष (National Disaster Response Fund; NDRF) या राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण कोष (National Disaster Mitigation Fund; SDMF) से सहायता उपलब्ध करवाने का अनुरोध किया जा सकता है – इसके लिये बस एक अच्छा सा प्रस्ताव भर बनाना होगा।
आपदा प्रतिरोध्यता का Agent of disaster resilience
आपदा प्रहरी आपदा सुरक्षा सम्बन्धित उपायों, तकनीकों व उपकरणों को लोगो के मध्य ले जाने व इन्हे लोकप्रिय बनाने के लिये कार्य करेगा और साथ ही इनकी स्वीकार्यता में आ रही बाधाओं को चिन्हित करेगा। इन बाधाओं के निराकरण के लिये सक्षम प्राधिकारियों की संलिप्तता से आवश्यक संशोधन सुनिश्चित करने के साथ ही वांछित जागरूकता व क्षमता विकास कार्यक्रमों का आयोजन करवायेगा ताकि समाज में सभी के द्वारा इनका स्वैछिक अनुपालन सुनिश्चित हो सके।
सुरक्षा सभी का सरोकार
आपदा प्रहरी की उपस्थिति विभिन्न आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यो में समाज की भागीदारी सुनिश्चित करेगी और जागरूकता, क्षमता विकास व अनुभवों के आदान-प्रदान से लोग आपदाजनित क्षति को कम करने में आपदा जोखिम न्यूनीकरण की भूमिका को बेहतर समझ पायेंगे। इससे समय बीतने के साथ लोग निश्चित ही क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिये आपदा जोखिम न्यूनीकरण को एक प्रभावी उपकरण के रूप में उपयोग करने के साथ ही अपने दैनिक जीवन में इनका स्वैच्छिक अनुपालन करने लगेंगे।
इसके साथ ही लोग ग्राम पंचायत स्तर पर परिकल्पित व विकसित योजनाओ में आपदा जोखिम न्यूनीकरण उपायों का समावेश करने को प्रेरित होंगे और इससे सही मायनो में विकास व आपदा जोखिम न्यूनीकरण का गठबंधन ho पायेगा।
आपदा प्रहरी पूरे समाज में आपदा प्रतिरोध्यता लायेगा जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र का अबाधित विकास सुनिश्चित होगा।
आपदा प्रहरी की उपस्थिति उत्तराखण्ड को आपदा सुरक्षित बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी और यह देश को आपदा सुरक्षित बनाने के लिये हमारा योगदान होगा।
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