संता – भाई, आजकल ये आपदायें कुछ ज्यादा ही नहीं सुनायी दे रही हैं?
बंता – अब ज्यादा या कम, इस बारे में ठीक से कुछ कह पाना कठिन हैं।
संता – क्या मतलब?
बंता – बातें बनाना और बात हैं, पर सच कहें तो आपदाओं के लम्बे समय के आंकड़े किसी के भी पास हैं नहीं।
संता – ऐसा क्यों?
बंता – ये सब आकड़े कोई नियमित रूप से जमा जो नहीं करता हैं।
जो कुछ आकड़े हैं, वो केवल 1900 के बाद की बड़ी आपदाओं के हैं और उन्ही के आधार पर हम सब अपनी-अपनी कहानी बुनते रहते हैं।
संता – ऐसे में तो
बंता – जी हाँ, ऐसे में यह भी हो सकता हैं कि आपदायें तो हमेशा से उतनी ही घटित हो रही हो, पर संचार माध्यमों की बहुतायत के कारण आज हमें पता ज्यादा चल रहा हैं।
संता – पर प्रकृति और जलवायु परिवर्तन
बंता – संता भाई, आज के समय में आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिको का मानना हैं कि आपदाओं के लिये प्रकृति से कहीं ज्यादा हम उत्तरदायी हैं, और ऐसे में इन घटनाओ को प्राकृतिक आपदा नहीं कहा जाना चाहिये।
संता – कहना क्या चाह रहे हो तुम?
बंता – यह तो तुम समझते ही हो कि आपदा का होना या ना होना घटना व समुदाय की घातकता के परस्पर सम्बन्धो पर निर्भर करता हैं?
संता – यह तो एकदम ठीक हैं।
समझता हूँ मैं कि घातकता ज्यादा होने पर छोटी सी घटना भी आपदा का रूप ले सकती हैं और घातकता कम होने पर सम्भव हैं कि घटना से किसी को कोई फर्क पड़े ही नहीं।
बंता – यह सब तो ठीक हैं, पर यहाँ ज्यादा महत्वपूर्ण यह समझना हैं कि घातकता कम हो या ज्यादा – उसके लिये हम और हमारे द्वारा किये जाने वाले काम उत्तरदायी हैं।
फिर परिभाषा जो भी हो, सच कहो तो घातकता का तात्पर्य प्रकृति की सामान्य प्रक्रियाओं का सामना करने की हमारी क्षमताओं को बाधित करने वाली सामाजिक व्यवस्थाओं से हैं।
संता – यह तो भाई हद ही हो गयी।
अबकी बार तो तुमने आपदाओं का सारा का सारा ठीकरा सामाजिक व्यवस्थाओं के ऊपर फोड़ दिया?
बंता – अब ऐसा भी नहीं हैं।
कोई भी आपदा, चाहे वो भूकम्प ही क्यों न हो, वो तो हमेशा से आती ही रही हैं।
परन्तु आने वाला हर भूकम्प तो आपदा का रूप नहीं लेता हैं।
संता – भाई, वो सब तो परिमाण के साथ ही केन्द्र की गहरायी पर निर्भर करता हैं।
बंता – भाई उससे कही ज्यादा यह हम पर निर्भर करता हैं।
संता – मतलब ?
बंता – अब यह सब बिना उदाहरण के तो तुम्हारी समझ आने से रहा।
संता – सो तो हैं।
बंता – अब इतना तो तुम मान ही चुके हो कि भूकम्प में होने वाली क्षति भूकम्प के परिमाण व सतह से केन्द्र की गहरायी पर निर्भर करती हैं।
संता – सैद्धान्तिक रूप से तो होना ऐसा ही चाहिये, हैं ना?
बंता – वो तो ठीक हैं पर प्रकृति सिद्धांतो को तो मानती नहीं हैं। फिर हम भी तो हैं इन सब को ऊपर – नीचे करने के लिये।
संता – मतलब?
बंता – यह सब समझने के लिये एक ही समय पर आये, समान परिमाण व गहरायी वाले दो भूकम्प चाहिये – सो बात 2003 की करते हैं।
संता – 2003 ही क्यों?
बंता – 2003 में कुछ ही दिनों के अंतराल में ऐसे दो भूकम्प जो आये थे।
पहला था 22 दिसम्बर को कैलिफ़ोर्निया में आया 6.6 परिमाण का सन सिमोन भूकम्प जिसका केन्द्र 16 किलोमीटर की गहरायी पर था। भारी आर्थिक नुकसान के बावजूद इस भूकम्प में केवल 02 लोग मारे गये।
इस भूकम्प के 04 दिन के बाद ईरान में 6.6 परिमाण का बाम भूकम्प आया था। परिमाण के साथ ही सन सिमोन भूकम्प की तरह इस भूकम्प का केन्द्र भी 15 किलोमीटर की गहरायी पर था, परन्तु इसके बावजूद इस भूकम्प में 26271 लोग मारे गये, 22628 घायल हुवे और 45000 विस्थापित हुवे।
संता – परिमाण व गहरायी लगभग बराबर होने पर भी क्षति में इतना बड़ा अन्तर?
बंता – इतना ही नहीं, बाम भूकम्प में बाम शहर के आस – पास के इलाके में 90 प्रतिशत संरचनाये क्षतिग्रस्त हो गयी थी और 70 प्रतिशत घर ध्वस्त हो गये थे।
संता – मतलब कि सम्पूर्ण विनाश।
बंता – भाई, इन दो भूकम्पों में हुयी क्षति से घातकता के प्रभावों को अच्छे से समझा जा सकता हैं।
घातकता कम होने के कारण कैलिफ़ोर्निया में क्षति सीमित थी, तो वहीं घातकता अधिक होने के कारण बाम भूकम्प में भारी विनाश हुवा।
संता – हम भी तो भूकम्प संवेदनशील क्षेत्र में ही रहते हैं। ऐसे में तो हमें भी घातकता कम करने पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
बंता – देना तो चाहिये पर इस सब में लम्बा समय लगता हैं, और प्रयास भी गम्भीरता से व लगातार करने पड़ते हैं।
अब कैलिफ़ोर्निया रातो-रात तो भूकम्प सुरक्षित बना नहीं।
वहाँ की सरकार व लोगो ने लम्बे समय तक भूकम्प सुरक्षा सम्बन्धित पक्षों पर गम्भीरता से काम किया और यह सब उसी का नतीजा हैं।
संता – तो फिर ईरान का क्या?
बंता – ईरान भी रातो-रात भूकम्प असुरक्षित नहीं हुवा।
वहाँ की सरकार व लोगो ने लम्बे समय तक भूकम्प सुरक्षा सम्बन्धित पक्षों की उपेक्षा या अवहेलना की और उसी के कारण क्षति का परिमाण इतना ज्यादा रहा।
संता – मतलब कि यह सब सब धीरे-धीरे होता हैं ?
बंता – जी हाँ, आपदा घटना से कही ज्यादा एक प्रक्रिया हैं और धीरे – धीरे घातकता बढ़ने वाली इस प्रक्रिया की परिणिति आपदा के रूप में होती हैं।
संता – इसका तो मतलब यही हुवा कि ज्यादातर आपदायें हमारी लापरवाही का नतीजा हैं।
बंता – वही तो मैं इतनी देर से समझाने की कोशिश कर रहा हूँ भाई।
आपदाओं के लिये घातकता और सिर्फ घातकता उत्तरदायी हैं और घातकता सामाजिक प्रक्रियाओं, हमारे निर्णयों, क्रिया-कलापो व आचरण के आधार पर कम या ज्यादा हो सकती हैं।
ऐसे में निश्चित ही आपदाओं के लिये प्रकृति से कहीं ज्यादा हम स्वयं उत्तरदायी हैं।
संता – इसका तो मतलब यह हुवा कि किसी भी घटना को प्राकृतिक आपदा कहना गलत हैं।
बंता – एकदम दुरुस्त, ज्यादातर आपदायें मानव जनित ही हैं और आपदायें घटना न हो कर प्रक्रिया हैं।
संता – मतलब यह की यदि हम सब चाहे तो क्षेत्र को आपदा सुरक्षित बनाया जा सकता हैं।
बंता – एकदम ठीक, शर्त मात्र इतनी हैं कि सरकार हो या ठेकेदार, किसी के भी स्वार्थ सुरक्षा पर भारी न पड़े।
Pradeep Goswami says
“आपदाएं घटनायें ना हो कर प्रक्रिया हैं ” वाह मित्र बेहतरीन है… सच है. मैं भुना लूँगा इस वाक्य को, citation के साथ,…
👍👍 बहुत सुंदर व सटीक
Thank you sir for explaining the important issue of lethality of disaster so easily.