After a series of earthquakes in the recent past in western Nepal and Pithoragarh, the earthquake early warning (EEW) system operated by USDMA in Uttarakhand has been the focus of most seismic safety related debates.
Obsessed with the glitter and fancy of early warning most disaster risk reduction (DRR) enthusiasts often tend to consider it the ultimate goal to be realised, and fail to appreciate that it is only the tip of the iceberg in realisation of an earthquake resilient community.
This results in gross neglect of the main constituents of seismic safety that include:
(i) Seismic safety of new construction through stern implementation and volunnrty compliance of construction norms.
(ii) Mass awareness for voluntary compliance and household safety.
(iii) Land use restrictions for regulating construction in the proximity of active faults and in areas likely to witness liquefaction.
(iv) Seismic safety of places routinely witnessing mass congregation interlacing compliance of safety norms with their operating permission norms.
(v) Seismic safety of existing built environment by promoting retrofitting and reconstruction.
(vi) Risk transfer for prompt and effective post-earthquake recovery.
It needs to be realised that EEW is going to be effective only after compliance is ensured on the above points.
**************************************************
पिछले कुछ दिनों में पश्चिमी नेपाल के साथ ही पिथौरागढ़ में आये छोटे-बड़े भूकम्पों के बाद से यहाँ उत्तराखण्ड में संचालित भूकम्प पूर्व-चेतावनी तंत्र की प्रभाविकता व उपयोगिता पर संचार माध्यमों के साथ ही अन्य विभिन्न मंचो पर वाद-विवाद जारी हैं।
कौन से भूकम्प में, कहाँ, किसे व कितने पहले अलर्ट मिला?
किस भूकम्प में अलर्ट नहीं मिला?
अब तक इस सब पर कितना पैसा व्यय किया गया?
प्रश्न अनेको हैं, और सच पूछो तो प्रश्न किया जाना या सकारात्मक आलोचना अच्छी भी हैं।
ठीक हैं एक तंत्र स्थापित किया गया है और निश्चित ही क्षेत्र में आये हर भूकम्प के बाद इस तंत्र की प्रभाविकता की समीक्षा करते हुवे इसे और प्रभावी बनाने के उपाय किये जाने चाहिये।
पर यक्ष प्रश्न तो यह हैं कि क्या हमने इस भूकम्प पूर्व-चेतावनी तंत्र को क्षेत्र में भूकम्प सुरक्षा की गारंटी समझ लिया हैं?
और क्या इस चेतावनी व्यवस्था के अपनी पूरी क्षमता पर काम करने से हमारी भूकम्प सम्बन्धित सभी समस्याओ का समाधान हो जायेगा?
अगर इन दो प्रश्नो में से किसी एक का भी उत्तर हाँ में हैं, तो स्पष्ट है कि हम सही राह पर नहीं हैं या फिर राह भटक गये हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में यहाँ यह समझना जरूरी हैं कि जिस चेतावनी की यहाँ बात की जा रही हैं वह भूकम्प के झटके महसूस होने से कुछ 20, 25 या 35 सेकंड पहले ही मिल पायेगी और फिर भूकम्प के अभिकेन्द्र के पास-पड़ोस के काफी बड़े इलाके के लिये इस तंत्र से किसी भी प्रकार की कोई भी चेतावनी उपलब्ध नहीं होगी।
फिर इस चेतावनी के बावजूद भी घर, मकान, सड़क, पुल, अस्पताल, मन्दिर, मस्जिद, स्कूल, दुकान व अन्य संरचनाये तो भूकम्प में क्षतिग्रस्त व ध्वस्त होंगी ही।
भूकम्प सुरक्षित तकनीक का उपयोग कर सावधानीपूर्वक बनायी गयी अवसंरचनाये तो शायद खड़ी रह जाये, पर मेरे-आपके पास पड़ोस में दिन-रात हो रहे बेतरतीब निर्माण का क्या? उन सब का तो भगवान ही मालिक हैं। और बहुत सम्भव हैं कि भूकम्प की चेतावनी मिल जाने के बाद भी उन असुरक्षित अवसंरचनाओं से सभी के लिये सुरक्षित निकल पाना सम्भव ना हो।
ऐसे में जरूरी हैं कि वर्तमान में स्थापित भूकम्प पूर्व-चेतावनी तंत्र पर हो रहे व्यर्थ के वाद-विवाद के कारण हमारा ध्यान भूकम्प सुरक्षा के मूलभूत पक्षों से न भटके, और हम अब तक अब तक लापरवाही से भगवान भरोसे छोड़ दिये गये पक्षों पर गम्भीरता से काम करना शुरू कर दे।
जितनी जल्दी, उतना बेहतर।
नये निर्माण की सुरक्षा
जो पहले से बनी अवसंरचनाये है उनकी भूकम्प सुरक्षा सुनिश्चित की जानी भी जरूरी है, परन्तु उससे कहीं ज्यादा जरूरी यह है कि हम लग-पड़ कर जैसे भी हो, यह सुनिश्चित करे कि क्षेत्र में आगे जो भी अवसंरचना बने भूकम्प सुरक्षित ही बने।
इस परिप्रेक्ष्य में ज्यादातर स्थितियों में हम भवन निर्माण उपविधि बना कर अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेते हैं। इनका अनुपालन हो रहा हैं या नहीं, उससे हमारा ज्यादा सरोकार होता ही नहीं हैं और फिर इस सब पर पानी फेरने के लिये हम आये दिन व खुलेआम Compounding का खेल भी तो खेलते ही रहते हैं।
आपको यह कुछ अटपटा सा लग सकता हैं पर Compounding दंड के नाम पर कुछ पैसे ले कर नियम विरुद्ध बनी अवसंरचनाओं को नियमित कर देने से ज्यादा और कुछ नहीं हैं। ऐसे में देखा जाये तो यह व्यवस्था नियमो की अवहेलना करने वालो के लिये किसी पुरुस्कार से कम नहीं हैं और इससे लोग नियमो की अनदेखी करने को प्रोत्साहित ही होते हैं। आखिर उनको पता जो होता है कि ले दे कर मामला रफा-दफा हो जायेगा।
अतः जरूरी हम अपने कर्तव्यों को भवन निर्माण उपविधि के विकास तक सीमित न रखते हुवे इनका अनुपालन सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करें। इसके लिये स्वेच्छा से अनुपालन करने वालो को प्रोत्साहित करने के साथ ही अवहेलना करने वालो के विरुद्ध कड़ी दंडात्मक व्यवस्था का होना आवश्यक हैं। इसके साथ ही जितनी जल्दी हो सके हमें Compounding व्यवस्था को भी अलविदा कह देना चाहिये।
जन जागरूकता
यहाँ से शुरू होती हैं जागरूकता की आवश्यकता और इसके लिये जरूरी है कि करदाताओं के पैसों से भारी-भरकम निवेश कर के तैयार किये गये घातकता व जोखिम आंकलनों को सरकारी दफ्तरों की बन्द अलमारियों से बाहर निकाला जाये, और उनका समुचित प्रचार-प्रसार किया जाये।
आखिर यह जानना तो हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार हैं कि उसके प्रियजनों पर किस जोखिम का कितना खतरा है, और उससे किस प्रकार का नुकसान हो सकता हैं। अगर हम जान बूझ कर इस जानकारी को छिपाते है तो हम होने वाली क्षति के लिये कानूनी रूप से उत्तरदायी है।
फिर यह भी तो गलत नहीं है कि सरल व स्पष्ट भाषा व प्रारूप में सम्भावित नुकसान के साथ-साथ नुकसान को कम करने के तरीकों व इसके लिये वांछित व्यय के बारे में जानने के बाद शायद ही कोई इन उपायों के उपयोग पर विचार ना करे। आखिर आप हो या फिर मैं, अपनों की सुरक्षा के बढ़ कर तो कुछ भी नहीं हैं।
इस सब के साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है की भूकम्प के समय हर कोई, चाहे जहाँ भी क्यों न हो अपनी स्वयं की सुरक्षा सुनिश्चित करे। इसके लिये हर किसी को पता होना चाहिये की उसे भूकम्प के समय क्या करना हैं, क्या नहीं करना हैं। इन सभी जानकारियों के प्रचार-प्रसार के लिये वृहद, सतत व नियोजित जागरूकता कार्यक्रम का होना जरूरी हैं और इस कार्यक्रम की धुरी पर कोई सर्व-स्वीकार्य Brand Ambassador होना ही चाहिये।
अब इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि हम पर्यटन के नाम पर तो नामी-गिरामी सितारों को सहज ही घेर लेते है पर लोगो की सुरक्षा के लिये ऐसा करते समय हमें यह सब फिजूलखर्ची लगने लगता हैं।
सच मानिये जन जागरूकता पर किया गया व्यय वास्तव में सुरक्षा पर किया गया निवेश हैं, और यह हमें निसंकोच करना चाहिये।
भू – उपयोग नियोजन
भूकम्प सुरक्षित निर्माण तो ठीक है पर यह सुनिश्चित करना भी तो जरूरी हैं कि जहाँ निर्माण हो रहा हैं वह स्थान सुरक्षित हैं।
मैदानी क्षेत्र में कुछ इलाकों में भूकम्प की स्थिति में Liquefaction का खतरा हो सकता हैं। ऐसे इलाकों में भूकम्प के कम्पन भूमि की दृढ़ता पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं, और इस स्थिति में अवसंरचनाये भूमि में धस भी सकती हैं।
ऐसा विगत में 27 मार्च 1964 को आये 9.2 परिमाण के Alaska भूकम्प, 16 जून 1964 को आये 7.6 परिमाण के Nigata भूकम्प, 17 अक्टूबर 1989 को आये 6.9 परिमाण के Loma Prieta भूकम्प, 17 जनवरी 1995 को आये 6.9 परिमाण के Kobe या Great Hanshin भूकम्प तथा 4 सितम्बर 2010 को आये 7.1 परिमाण के Canterbury भूकम्प में हुवा भी था।
इसी प्रकार भूकम्प की स्थिति में ज्यादातर स्थितियों में ऊर्जा पृथ्वी में अवस्थित कमजोर सतहों के द्वारा अवमुक्त होती हैं और इन्हे भू-वैज्ञानिक Thrust या Fault कहते हैं। Main Boundary Thrust (MBT) या फिर Main Central Thrust (MCT) तो आपने सुना ही होगा। यह ऐसी ही कमजोर सतहें हैं जिनके सापेक्ष भूकम्प में ऊर्जा अवमुक्त हो सकती हैं। यही कारण है कि क्षेत्र में आने वाले ज्यादातर भूकम्पों का अभिकेन्द्र इन सतहों के आस-पास ही होते हैं।
और इनके साथ ही यहाँ हिमालय में अनेको सक्रिय या Active Fault भी है जिनके नजदीक भूकम्प की स्थिति में ज्यादा नुकसान हो सकता हैं। अब इन सब के मानचित्रीकरण व चिन्हीकरण में हो सकता हैं समय लगे, पर जो चिन्हित हैं उनके समीप तो निर्माण कार्य विनयमित किये ही जा सकते हैं।
आपको शायद अब तक किसी ने बताया नहीं हैं, पर MBT हमारी राजधानी देहरादून से हो कर गुजरता हैं – राजपुर में शहंशाही आश्रम के पास से। यह जान लेने के बाद आप और कुछ करे या ना करें पर इस सक्रिय Thrust के समीप बहुमंजिला इमारतें बनाये जाने के औचित्य के साथ ही उनकी सुरक्षा के बारे में एक बार तो जरूर सोचेंगे और सच कहें तो उद्देश्य भी यही हैं।
जब आप सोचेंगे तो सुरक्षा भी मागेंगे और शायद परिवर्तन वहीं से आरम्भ होगा।
ऐसे में अभी के लिये कहा जा सकता हैं कि Liquefaction के साथ ही क्षेत्र में अवस्थित MBT या MCT जैसी प्रमुख कमजोर सतहों से प्रभावित हो सकने वाले क्षेत्रों को चिन्हित कर वहाँ निर्माण कार्यो को नियन्त्रित किया जाना चाहिये।
ऐसा भू-उपयोग सम्बन्धित नियमावली प्रख्यापित कर के सहज ही किया जा सकता हैं।
पुरानी अवसंरचनाओं का सुदृढ़ीकरण
इसके बाद बारी आती हैं पुरानी अवसंरचनाओं की। इन्हे भूकम्प सुरक्षित तो निश्चित ही बनाया जा सकता हैं पर यह प्रक्रिया नयी अवसंरचनाओं को भूकम्प सुरक्षित बनाने जितनी सरल भी नहीं हैं।
परन्तु यदि हमने जागरूकता पर व्यवस्थित व नियोजित रूप से निवेश किया हैं, तो निश्चित ही इससे पुरानी अवसंरचनाओं को सुरक्षित बनाने की विधि या सुदृढ़ीकरण का भी प्रचार-प्रसार होगा, इसकी माँग बढ़ेगी और जल्द ही बाजार में अवसंरचनाओं के सुदृढ़ीकरण के सस्ते व सुलभ विकल्प भी उपलब्ध हो ही जायेंगे।
अपनी तरफ से सरकार इन तकनीकों के प्रचार-प्रसार के साथ ही लोगो को इनके उपयोग के लिये प्रोत्साहित करने के लिये विशेष योजनाये चला सकती हैं, और इन योजनाओ में सस्ते ऋण, आर्थिक अनुदान व कर छूट को भी सम्मिलित किया जा सकता हैं।
वैसे देखा जाये तो सुदृढ़ीकरण की भी अपनी सीमायें हैं और उसके बाद यह काम तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण व आर्थिक दृष्टिकोण से अव्यवहारिक होने लगता हैं। फिर जब कम कीमत में नयी संरचना बन जाये तो ऐसे में सुदृढ़ीकरण का कोई औचित्य रह भी नहीं जाता हैं। ऐसा तो केवल सांस्कृतिक, धार्मिक या ऐतिहासिक महत्व की संरचनाओं के लिये ही किया जा सकता हैं।
सुदृढ़ीकरण के अव्यवहारिक होने की स्थिति में असुरक्षित संरचनाओं के पुनर्निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिये विशेष योजनाये बनायीं जा सकती हैं।
सार्वजनिक स्थानों में सुरक्षा
भूकम्प की स्थिति में प्रभावितो की संख्या का निर्धारण उस समय भूकम्प से क्षतिग्रस्त संरचना में उपस्थित व्यक्तियों की संख्या के द्वारा होता हैं; भूकम्प के समय प्रभावित संरचना में जितने ज्यादा व्यक्ति होंगे, प्रभावितो की संख्या भी उतनी ही ज्यादा होगी।
इस परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं कि एक साथ और एक ही जगह पर बड़ी संख्या में लोगो के घायल या हताहत होने से समाज पर अत्यधिक प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता हैं, और इससे उबरने में काफी लम्बा समय भी लग सकता हैं।
अतः ऐसी संरचनाओं की भूकम्प सुरक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता हैं जहाँ पर सामान्यतः भीड़-भाड़ रहती हैं, जैसे कि थिएटर, मॉल, अस्पताल, स्कूल, सरकारी दफ्तर, होटल व रेस्टोरेंट।
भूकम्प सुरक्षा सम्बन्धित सुरक्षा मानकों के अनुपालन को इन सभी प्रतिष्ठानों के संचालन की मूलभूत शर्त बना कर इन स्थानों में उपस्थित व्यक्तियों की भूकम्प सुरक्षा सहज ही सुनिश्चित की जा सकती हैं।
आपदा बीमा
इतना सब कर लेने के बाद भी भूकम्प आयेगा और एक सीमा के बाद उससे नुकसान भी होगा। ऐसे में भूकम्प के बाद उसके प्रभावों से उबरने और अर्थव्यवस्था को तेजी से पटरी में लाने के बारे में सोचना भी जरूरी हैं। इसके लिये जरूरी है कि आपदा बीमा को प्रोत्साहित किया जाये, और सच मानिये यह बहुत सस्ता हैं।
भवनों के लिये आपदा बीमा की दर मात्र रू. 0.315 प्रति रू. 1000 प्रति वर्ष जो हैं।
मतलब साफ़ है कि केवल रू. 3150 का निवेश कर के आप साल भर के लिये अपने घर का रू. 1.0 करोड़ का बीमा करवा सकते है और वो भी 12 आपदाओं या प्रतिकूल स्थितियों के लिये जैसे कि
(i) आग या Fire,
(ii) बज्रपात या Lightning,
(iii) अचानक ध्वस्त होना या Implosion,
(iv) विस्फोट या Explosion,
(v) भूकम्प या Earthquake,
(vi) आंधी या Storm,
(vii) तूफ़ान या Tempest,
(viii) बाढ़ या Flood,
(ix) जल भराव या Inundation,
(x) प्रक्षेपास्त्र परीक्षण या Missile test operations,
(xi) जंगल की आग या Bushfire, तथा
(xii) छत पर बनी पानी की टंकी का फटना या Bursting of overhead tank
अब इतने के बाद तो आपको अपने घर का बीमा करवा ही लेना चाहिये। उन्हें तो जरूरी ही जो इस भूकम्प संवेदनशील क्षेत्र में बहुमंजिला इमारतों में रहते हैं।
अब यदि आप पास-पड़ोस में हो रही चोरी-चकारी की चिन्ता से भी निजात पाना चाहते हो तो रू. 0.3 प्रति रू. 1000 प्रति वर्ष की दर पर अपने घर का सेंधमारी या Burglary का बीमा भी करवा सकते हो। मतलब रू. 3000 के निवेश पर घर का रू. 1.0 करोड़ का सामान एक साल के लिये सेंधमारी से सुरक्षित।
वैसे देखा जाये तो बीमा एक महत्वपूर्ण जोखिम हस्तान्तरण उपकरण हैं और कई देशो में इसे आपदा न्यूनीकरण उपाय के रूप में प्रोत्साहित किया जा रहा हैं। हमारे देश में भी सरकार चिन्हित वर्ग के परिवारों को स्वास्थ्य व फसल बीमा सुविधा का लाभ दे ही रही हैं। साथ ही परिवहन क्षेत्र में भी टिकट के सापेक्ष यात्रियों को बीमा लाभ से आच्छादित किया ही जाता हैं।
ऐसे में अगर सरकार चाहे तो वाहनों के बीमा की तरह ही घरो व अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिये आपदा बीमा को अनिवार्य भी कर सकती हैं और इसकी किश्तो या Premium को लाभार्थियों द्वारा नियमित रूप से दिये जाने वाले बिजली-पानी के बिलो में या फिर भवन व अन्य करों में सहज ही समायोजित किया जा सकता हैं।
इससे जहाँ एक ओर आपदा की स्थिति में प्रभावितो को राहत की जगह उनकी परिसम्पत्तियों को हुयी क्षति की प्रतिपूर्ति मिल पायेगी, वहीं दूसरी ओर इससे आपदा के कारण सरकारी कोष पर पड़ने वाले दबाव में भी कमी आयेगी।
अतः परिसम्पत्तियों का बीमा होने से आपदा उपरान्त पुनर्प्राप्ति की राह सरल, सहज व तेज हो जायेगी और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले आपदा के प्रतिकूल प्रभाव भी निश्चित ही कम होंगे।
चलते – चलते
बात हमने भूकम्प पूर्व-चेतावनी तंत्र से शुरू की थी और हम अब तक भूकम्प सुरक्षा का पूरा का पूरा दारोमदार उसी पर डाल रहे थे, पर सच में देखा जाये तो उसका नम्बर हमारे द्वारा ऊपर दी गयी व्यवस्था पर पूरे मनोयोग से काम कर लेने के बाद ही आता हैं।
उसके बिना अकेले भूकम्प चेतावनी के भरोसे बैठे रहना तो खतरा देख शुतुरमुर्ग का रेत में सिर छुपा लेने जैसा ही हुवा, और हम सब सच में शुतुरमुर्ग तो हैं नहीं।
Rajendra Sanwal says
Yes, very rightly said- Earthquake early warning is a mere illusion, considering the present state of knowledge, in the field of Earthquake science. More appropriate approach, in any seismic disaster prevention continues to be- public awareness, site safety and safe building design.
Prabhash Pande says
Very well written article on earthquake disaster management. My experience is that the aspect of disaster management can be successful only if the respective implementation authorities (generally the State Governments) are willing or interested in doing so. The role of Central Authorities, thus, becomes limited to issuing scientific, technological and socio-economic guidelines, and providing funds. We, still do not have a legislative mechanism, which can ensure following of the building codes, particularly in rural environs. With so many constraints, it does not mean that we should slow-down or stop our scientist research and pursuits.
सर प्रणाम, आपके लेख पड़ता रहता हूँ वाटत्सेप् में हो चाहे फेसबुक में , जो भी माध्यम रहा हो हिंदी में ज्यादा स्पस्ट समझ में आ जाता है बहुत अच्छा नॉलेज मिल जाता है यूँ ही अपना मार्ग दर्शन देते रहियेगा🙏
Until we develop inhouse comptency in scientists for evolving and developing it further, it’s not going to help. You will keep buying it from market like your apple cellphone.
And the last mile connectivity, and public response to warning.
We are hopeless in that and serious work is required to be done on these.
Exactly hitting the nerve sir… No measure is useful until unless general public is aware.
Moreover, technology can only provide the warning but how to act on the warning will come from awareness only.
Congratulations for a well written article crisply summarising the essentials of seismic safety. The authorities, particularly in Uttarakhand, need to wake up and start to act as the recent seismic tremors along the eastern border could well be the final warning of the big one that is in the offing.
भूकम्प सुरक्षा के लिये अभी हमें बहुत कुछ करना बाकी हैं और सच कहें तो आम आदमी हो या फिर सरकार, कोई भी भूकम्प सुरक्षा को ले कर गम्भीर नहीं हैं. आम आदमी को ना ही खतरे के बारे में सही-सही पता है और ना ही यह कि खतरे को कम करने के लिये क्या किया जा सकता हैं. सो वह भगवन भरोसे बैठा हैं. और सरकार को वोट के आलावा अन्य किसी बात से कोई सरोकार रह नहीं गया हैं और उसे अच्छे से पता हैं कि आपदा सुरक्षा से वोट तो मिलने से रहे. वो तो मिलते हैं राहत से, तभी तो आपदा उपरान्त राहत के समय छोटा-बड़ा, पक्ष-विपक्ष हर नेता अचानक से अतिसक्रिय हो जाता हैं. अब आप पीटते रहो आपदा सुरक्षा का ढोल – किसी को क्या फर्क पड़ता हैं?
इस बार आप दोनो भाषा में लिखे हैं. इससे लेख और भी ग्राह्य हो गया हैं. इसके लिए आपको साधुवाद.
और भूकंप अलर्ट को लेकर भी आपने शोर मचाने वालो को अच्छा आइना दिखाया है.
महोदय, मै अपनी समझ और जानकारी के अनुसार कम शब्दों में यह कहना चाहता हूँ कि भूकंप पहले भी आये हैं और आगे भी आते रहेंगे।यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसे रोका नहीं जा सकता लेकिन यदि हम जानकारी रखते हैं, जागरूक रहते हैं तो इससे होने वाले असर को हम जरूर कम कर सकते हैं।लेकिन समस्या ये है कि जब कोई बात हो जाती है तब हम चर्चा करने लग जाते हैं।आज का माहौल ऐसा है कि किसी को भी ये याद नहीं कि हम भूकम्प की द्रष्टी से कितने संवेदनशील जगह में रहते हैं।बस,हर कोई अंधी दौड़ में शामिल है।भूकंप कभी किसी को मारता नही है,मारती है तो जानकारी का अभाव और कमजोर अवसंरचनाएं।पहले के लोगों की बुद्धिमानी देखिये, उन्हें मालूम था कि हम कहा रहते हैं.।इसलिए ऐसे तकनीक से घर बनाए जो कि भूकम्परोधी थे ।लेकिन आज नियम ,कानून को ताक पर रखकर रातों रात ,आढे,तिरछे मकान खडे कर लिये जाते हैं।मिस्त्री, जो कि दस दिन पहले एक मजदूर था वह आज कई मकानों के ठेका लेकर ठेकेदार बन गया। कहनी बहुत सी बातें है लेकिन अभी के लिए इतना ही।एक बात ओर कहना चाहूंगा कि जागरूकता के साथ साथ सरकार को एक ऐसा नियम निकालना चाहिए कि एक मिस्त्री को कम से कम मिस्त्री बनने से पहले एक निश्चित अवधि तक का प्रशिक्षण या ज्ञान हो।रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया होनी चाहिए।जगह की संवेदनशीलता को देखकर ,घर बनाने व कितने मंजिल बनना है कि अनुमति अनिवार्य रुप से लेने हेतू जोर देना चाहिए। पहाड़ों से पलायन को रोकना होगा।।मै समझता हू कि उत्तराखण्ड कि आबादी का आधे से भी ज्यादा प्रतिशत आज देहरादून या अन्य बडे शहरों में चला गया है।जहां कि अब उपजाऊ के लिए जमीन भी नहीं बची है।और यदि कभी बडे स्केल का भूकंप आता है तो इन जगहों पर नुकसान का आंकड़ा निश्चित तौर पर ज्यादा होगा ।जो कि सिर्फ और सिर्फ पलायन का कारण होगा।ऐसा मेरा मानना है।और जागरूकता बहुत जरूरी है ,हर घर को जागरूक करना होगा।धन्यवाद।