हो सकता हैं और बहुत मुमकिन है कि अभी आपको यह सब किसी सिरफिरे का फितूर लग रहा हो पर सच मानिये और विश्वास करिये – यह विषय अत्यन्त गम्भीर होने के साथ ही पहाड़ में रह रहे लोगो के भविष्य से जुड़ा है।
हमारे सीढ़ीदार खेत
भू-स्खलन से प्रभावित पहाड़ी ढाल को सीढ़ीदार स्वरुप देना आज भी भू-स्खलन उपचार का एक प्रभावी तरीका हैं। इससे जहाँ एक ओर तीव्र ढाल बारम्बारता में छोटे ढालो में विभक्त हो जाता है तो वहीं दूसरी ओर बीच में समतल स्थान उपलब्ध हो जाने के कारण बारिश का पानी अनियन्त्रित व तेज बहाव के रूप में नहीं बह पाता है।
फिर यदि एक बार भू-स्खलन को भूल भी जाये तो इसके कारण पहाड़ी ढाल पर समतल सतह उपलब्ध होने के कारण पानी कुछ देर तो अवश्य रुकता है और इससे पानी को जमीन के नीचे जाने का मौका मिलता है – स्पष्ट है की इससे भू-जल का भी संवर्धन होता है।
ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मुख्य रूप से पुराने भू-स्खलन क्षेत्र के ऊपर कड़ी मेहनत से विकसित किये गये सीढ़ीदार खेतों ने जहाँ एक ओर पहाड़ो में संवेदनशील ढालों को सन्तुलित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया तो वहीं इससे भू-जल के संवर्धन में भी मदद मिली।
एक समय था जब इस पूरे के पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था इन सीढ़ीदार खेतों पर निर्भर हुवा करती थी – उस समय रोजगार के सीमित अवसर उपलब्ध होने के कारण ज्यादातर लोग खेती-बाड़ी पर जो निर्भर थे। तब घर-परिवार की खुशहाली इन सीढ़ीदार खेतो के अस्तित्व पर ही निर्भर थी और इसीलिये तब यहाँ के लोग इन सीढ़ीदार खेतो के पुश्तों की नियमित देखभाल व मरम्मत किया करते थे।
कहीं भी जरा सी कमजोरी नजर आयी नही कि झट से मरम्मत कर दी।
पलायन का दर्द
आज का परिदृश्य एकदम अलग हैं – विभिन्न कारणों से आज हमारा पूरा का पूरा पहाड़ी क्षेत्र पलायन की मार झेल रहा है – कहीं रोजगार की तलाश में तो कहीं बच्चो की शिक्षा या बड़े-बूढ़ो के इलाज के लिये लोग आज पहाड़ के गाँवो से यहीं शहरों में या फिर सुदूर मैदानी क्षेत्रों में जा कर बस रहे हैं।
फिर परम्परागत मोटे अनाज की माँग भी अपेक्षाकृत कम होने के कारण इनके मूल्य में अपेक्षित वृद्धि नही हो पायी हैं जिसके कारण पहाड़ो में हाड़तोड़ मेहनत के दम पर की जाने वाली खेती आर्थिक रूप से अलाभकारी उपक्रम बन कर रह गया हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी में खेती-बाड़ी को ले कर कोई उत्साह नहीं हैं।
फिर पहली पीढ़ी में पलायन करने वाले परिवारों की सामाजिक-आर्थिक प्रगति ने भी तो पीछे छूट गये लोगो को पलायन के लिये प्रेरित ही किया हैं।
आज का परिदृश्य
पलायन की मार झेल रहे हमारे पहाड़ के गाँवो में आज गिने-चुने परिवार ही बाँकी रह गये हैं। और सच मानिये इन में से अधिकांश के पास गाँव को छोड़ कर जाने का कोई विकल्प नहीं हैं।
सो कहा जा सकता हैं कि यह सब लोग मजबूरी में गाँव में रह रहे हैं। ऐसे में इनके पास भी गाँव की सुरक्षा या दीर्घकालीन हित पर किसी भी प्रकार का निवेश करने के लिये किसी भी प्रकार का कोई कारण नहीं हैं।
इस परिप्रेक्ष में सरकार के द्वारा पहाड़ो को आबाद करने के लिये समय-समय पर बनायी गयी विभिन्न योजनाओ की गहन समीक्षा की आवश्यकता हैं।
आज के हमारे खेत
आपको अच्छा लगे या फिर बुरा पर सत्य यही हैं कि आज पहाड़ो में खेती-बाड़ी बस नाममात्र को हो रही हैं और यहाँ बड़े पैमाने पर खेत बंजर पड़े हैं। दूर-दराज के खेतो पर जंगली पेड़-पौधों व झाड़ियों ने कब्ज़ा जमा लिया हैं। सच मानिये, आज के समय पर स्थलाकृति से ही अन्दाज लगाया जा सकता हैं कि वहाँ पर कभी खेत हुवा करते होंगे।
ऐसे में जब कोई खेती करने वाला ही न बचा हो तो फिर इन सीढ़ीदार खेतों और इनके पुश्तों की चिन्ता करे भी तो कौन और आखिर क्यों ?
हमारे खेत और आपदा
बदले हुवे आज के परिदृश्य में इन सीढ़ीदार खेतों के पुश्ते लम्बे समय से देखभाल के अभाव में कमजोर व क्षतिग्रस्त हो चले हैं और जरा सी भी तेज बारिश में इन पुश्तों के पीछे जमा मिट्टी गाड़े घोल के रूप में नीचे की ओर बहने लगती हैं।
पानी की कटाव करने व बहा कर ले जाने की क्षमता उसके घनत्व के बढ़ने के साथ काफी तेजी से बढ़ती चली जाती है। तभी तो हमारे बंजर पड़े खेतों से आरम्भ होने वाला गाड़े कीचड़ का यह प्रवाह तेजी से भू-कटाव करता है और अपने साथ बड़े-बड़े पेड़, पत्थर व चट्टानों को बहा ले जाता हैं और ढाल पर थोड़ी ही दूरी में बड़े भू-स्खलन का रूप धारण कर लेता हैं।
वैज्ञानिक सत्य
सच कहें तो भू-स्खलन के इस पक्ष पर अब तक किसी का ध्यान गया ही नहीं है और इसीलिये इस सब पर किसी प्रकार का कोई शोध या अध्ययन भी नहीं हुवा हैं। ऐसे में पुष्ट आकड़ो के साथ यह कह पाना तो सम्भव नहीं हैं कि सच में कितने प्रतिशत भू-स्खलनो की उत्पत्ति इस प्रकार से होती हैं।
पर जो भी हो यह आकड़ा छोटा तो होने से तो रहा।
समस्या का विस्तार
यहाँ इस महत्वपूर्ण पक्ष पर ध्यान दिया जाना जरूरी हैं कि हमारे ज्यादातर सीढ़ीदार खेत पुराने स्थिर हो गये भू-स्खलन क्षेत्रों के ऊपर स्थित हैं।
पहले की तरह ही यहाँ भी कह पाना मुश्किल हैं कि भू-स्खलन क्षेत्र के स्थिर हो जाने के बाद खेत बनाये गये या फिर खेत बनाये जाने के कारण भू-स्खलन क्षेत्र स्थिर हुवे – जो भी हो इन दोनों के बीच गहन सम्बन्ध तो अवश्य ही हमेशा से रहा हैं और इस विषय पर शोध की भी आवश्यकता है।
हमारे यहाँ, सच कहें तो शोध व अध्ययन वास्तव में दूर की कौड़ी है – पर यदि समय रहते इस पक्ष पर ध्यान न दिया गया तो आने वाले समय में स्थिति गम्भीर हो सकती हैं।
अपनी उदासीनता के कारण यदि हम समय रहते अपने सीढ़ीदार खेतो की सुध नही लेते हैं तो लम्बे समय से सुशुप्त पड़े व स्थिर हो गये अनेको भू-स्खलन क्षेत्र फिर से सक्रिय हो सकते हैं और उसके बाद इनको रोक पाना या इनका उपचार कर पाना जहाँ एक ओर तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण होगा वही दूसरी ओर इसके लिये आर्थिक व अन्य संसाधन जुटा पाना भी सरल नहीं होगा।
सरल उपाय
सहजता, सरलता व सस्ते में इस समस्या के निदान के लिये जरूरी हैं कि भू-वैज्ञानिको से विचार-विमर्श कर के इस विषय की गम्भीरता व इसके दूरगामी परिणामों को गहनता से समझा जाये और साथ ही इस विषय पर गम्भीरता से शोध व अध्ययन को प्रोत्साहित किया जाये।
इसके लिये हमारा आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण विशेष अनुदान की व्यवस्था भी कर सकता हैं और ऐसा उसके पास उपलब्ध क्षमता विकास मद से सहज ही किया जा सकता हैं।
भू-वैज्ञानिक समस्या और इंजीनियरिंग हल
यहाँ बात पहाड़ी ढाल की स्थिरता व भू-स्खलनों की हो रही है। अतः इस परिप्रेक्ष्य में सबसे जरूरी यह समझना व स्वीकार करना हैं कि भू-स्खलन एक भू-वैज्ञानिक समस्या है और भू-वैज्ञानिक ही इसका स्थाई व सरल समाधान सुझा सकते हैं।
पता नहीं क्यों और कैसे, पर हमारे नीति निर्धाताओ ने भू-स्खलन को एक इंजीनियरिंग समस्या समझ लिया हैं और पहाड़ी ढालो पर तेजी से बड़ रही इंजीनियरिंग दखलंदाजी से भू-स्खलन की समस्या समय के साथ केवल बढ़ ही रही हैं।
अतः पता नहीं कब से पर निरन्तरता में होने पर भी आज तक इस समस्या का स्थाई समाधान न हो पाने की विवेचना इस परिप्रेक्ष्य में भी अवश्य ही की जानी चाहिये।
इस परिप्रेक्ष्य में 1880 में नैनीताल में हुवे शेर का डण्डा भू-स्खलन के उपरान्त के घटनाक्रम व उस समय किये गये कार्यो से शहर को मिली दीर्घकालिक सुरक्षा की समीक्षा करना उचित होगा।
आगे की रणनीति
शायद आप सहमत है कि यह एक बड़ी समस्या हैं जो समय के साथ विकराल स्वरुप ले सकती है। आज समस्या का कारण हमें मालूम है – हो सकता है स्थिति को स्पष्ट व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने में समय लगे. पर इस सब के इन्तजार में हम हाथ में हाथ धरे यो बैठे तो नहीं रह सकते हैं।
हमारी जिम्मेदारी हैं कि हम समस्या से जुड़े तकनीकी पक्षों व दीर्घकालीन प्रभावों की विवेचना कर समय रहते उचित उपाय करे।
ऐसा न कर पाने पर आने वाली पीढ़ियाँ तो हमें माफ़ करने से रही।
उपलब्ध विकल्प
समस्या को जान- समझ लेने के बाद क्या सम्भावित आपदाओं से बचाव के लिये हमें अपने सीढ़ीदार खेतों की देख-रेख पर ध्यान नहीं देना चाहिये ?
कम से कम उन स्थानों पर तो कुछ किया ही जा सकता है जहाँ पहाड़ी ढाल पर इन सीढ़ीदार खेतों के निचले क्षेत्र में आबादी, सड़क या कोई और अवसंरचना स्थित हैं।
फिर आज हमारे पास ऐसा करने के लिये औपचारिक रूप से राज्य आपदा न्यूनीकरण कोष (SDMF) के अन्तर्गत संसाधन भी उपलब्ध हैं जिसका उपयोग कर के हम सहज ही वांछित सुरक्षात्मक उपाय कर सकते हैं।
सच मानिये आज इस सब पर खर्च किया गया 10 पैसा आने वाले समय में कई रुपये बचा सकता है और साथ ही इससे हमारे खेत व मिट्टी तो बचेंगे ही।
सो सौदा काफी सस्ता है, और निवेश अत्यन्त लाभकारी।
ऐसे में सोच-विचार की गुंजाइश तो कम ही रह जाती है।
N S Rautela says
आप लोगों में बहुत से लोग एसे होंगै जिनकी सरकार तक आवाज पहुंच हो और आप की बात सुनी जा सकती है अगर आप वास्तव में पहाड़ों के लिए कुछ करने की सोच रहे है तो सर्वप्रथम संपूर्ण पहाड़ के लिए एक मास्टर प्लान सुनियोजित किया जाय और एक सुनियोजित ढंग से विकास किया जा सके। और पुरानी शहरों की सीमाओं को चिन्हित किया जाए तभी पहाड़ का एक बहुत अच्छा विकास हो सकता है और जो हमारी प्राकृतिक सौंदर्य की यथास्थिति बनी रह सकती है अगर इसी तरह से ही पहाड़ों में निर्माण कार्य चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे पहाड़ अनियोजित ढंग से कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो जाएगा जिसका उदाहरण आपके सामने है पिथौरागढ़ (सोर घाटी ) और गढ़वाल श्रीनगर आज बेढंग से विकसित हुए हैं उन शहरों के पास अपना कोई मास्टर प्लान नहीं है।
राज्य नियोजन विभाग की मदद से कुछ पहल की जानी चाहिए, साधुवाद लेखक महोदय।
Interesting write up. In Madhyamaheshwar landslide of 1999 or was it 2000, the water from the Cedar forest at the top filled the step like fields to the brim.
On the fateful day these miniature dams burst and the huge mass of water carried lots of rocks and other matter. It not only temporarily blocked stream near the bus stand but went across and hit the villages upto a height of 100 m on the other side.
Thus some drainage for such fields in high risk areas is important I feel.
Migration has been an age old story. To curb that HP govt had floated number of lucrative schemes for himachalis. Alas our govt couldn’t provide even the basic facilities. In my family migration started from my great grand father’s time. Now my son has gone to Thailand for better job and his children to Canada😳🤪.
बहुत ही प्रासंगिक विषय और विषय की गंभीरता को दर्शाता हुआ लेख, मैंने सन 2010 एवं 2013 में हुई अतिवृष्टि के कारण खेतों को रेगिस्तान (desertification) में बदलते हुए देखा है. भूस्खलन के कारण कृषि भूमि में आया मलबा और बड़े-बड़े बोल्डर का निस्तारण करना संभव ही नहीं था.
Great article. I fail to understand how you get to have all these innovative and brilliant ideas.
There has to be a reason for this as well.
Don’t say “Rosemary” and it’s antioxidants.
Congratulations anyway and keep it up. We all look forward to even more stunning stuff from you.
I sincerely feel that rather than just floating the idea and walking ahead you should cling to it as it is really innovative and promising. Mustering funds for undertaking a pilot study should not be a problem and once the concept is demonstrated on ground you can rally around and undertake advocacy to influence policy makers to actually implement what you are saying. That would really be a great service.
Numerous scopes of work/employments,wherever cash crops to produce/yield,local small industries to be introduce,local labourers,peasent, industrial, estate must be encouraged to br trained and experienced persons to intrust to for the same. local deployed concerne authorities must take strict action to improve the situation sonthatvmigration could be avoided.It suold remain the show pieces in the paper works only but should appears in the ground. Dedication is required to avoid migration from hilly terrains.
Most of the cultivation-fields/lands in Indian mountain-slopes are over “palaeo-debris”, staired or non-staired. The reason being narrow valleys offer little arable/cultivable permanent lands. As a result these palaeo-debris masses are anthropologically over-stressed and vulnerable to slope-failures. Not much geomorphological work has been done on Indian landslides save inventrisation and stand-alone engineering treatment of accessible segments and known “damaging-landslides”. Engineering solutions are never permanent vis-a-vis landuse. With rise in population the mountainous tracts are coming under anthropologically induced stress each day. Our futuristic landuse has to be “environment-compatible” and for this geomorphic studies have to be re-aligned beyond the T1, T2, T3….Tn approach!
यथार्थ बयां करता उत्तम और सामयिक लेख, पीयूष।
बधाई।
सीढ़ीदार खेतों के रख- रखाव से निश्चय ही भू- स्खलन तो रुकता ही है, भूजल संवर्धन में भी अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पहाड़ों की खेती की जानकारी रखने वाले याद करें कि लगभग हर वर्ष आवश्यकतानुसार खेत की रिटेनिंग वॉल( पुश्ता- जिसे गढ़वाल क्षेत्र में भीडा कहते हैं) की मरम्मत की जाती थी जो खेत के समतलीकरण मेंसहायक होता था और जिसके कारण खेत में बारिश का पानी रुकता था। साल में औसतन दो बार जिस खेत में हल चला हो और समय समय पर निरायी गुड़ाई कर मिट्टी की ऊपरी पर्त porous बनने से अवश्य ही भू जल बढ़ता है। सारे प्राकृतिक जल स्रोतों का सूखना या उनका जल कम होने के पीछे एक बड़ा कारण ऊपरी क्षेत्रों का बंजर रहना है।
Scientists/ Researchers अपना काम करते रहें, आवश्यकता इस बात की है कि corporate मॉडल या अन्य किसी योजना के तहत पहाड़ी खेतों को बंजर न छोड़ा जाय।
अब ऐसा कुछ तीर भी नहीं मारा है पर यदि अग्रजो का कर्तव्य सही रह दिखाना व प्रोत्साहित करना है तो सर आप हमेशा अपना काम पूरी निष्ठा से करते रहे हैं.
आशा है आपके मार्गदर्शन में पहाड़ से जुड़े विषयो पर गम्भीरता से विचार- विमर्श, व काम किया जा सकेगा.
I think that there is no due. attention is being paid by varios expect right from initiation,survey,site selection ,lack of not provision well in time,not executing the work due one or other reason ,non receipt of required material in right time,,not position required materials at right timevatvright timte due lake of transport,worst terrains,and some time substandard materials etc and so many fenomena are responsible to deliver and eaxectuye the works in remote areas of these locations,hence such facters discouge for living peaple and they are compel for migration..Govt and local authories atevrequired tonpay maticulation execution, supervisions,instions and Sumit theiir factual report to concerned authorities. A ny how Govt. Is paying their attention tonstop the the migration. Ane endovers require minutely. Thanks for abresting this info to me also.
Thankyou for sharing such resourceful and thought provoking articles sir. I learn a lot from you.
आपकी अभिव्यक्ति का अलग ही अंदाज है जो पाठक को बाँधे रखता हैं. फिर आप समसामयिक व प्रासंगिक विषयो पर लिखते भी बेवाकी से हैं. अपनी भाषा की धार को कभी कुंद मत पड़ने देना. शुभकामनाये.
Wonderful. What an excellent correlation and that too in such a simple manner.. Keep it up.
तर्क सच में दमदार हैं और समस्या गम्भीर. ऐसे में इस विषय पर शोध तो निश्चित ही किया जाना चाहिये और साथ ही सुझावों पर अमल के लिये भी राजनैतिक दबाव बनाया जाना चाहिये. आखिर हमारे पहाड़ के अस्तित्व का सवाल है.
दबाव तो समाज ही बना सकता है मित्र और उसके लिए सतत प्रयास, समझ व एकजुटता की आवश्यकता हैं. फिर निर्भर करता है – क्या हमारे बुद्धिजीवी या राजनेता कम हो रही आबादी वाले विशुद्ध पहाड़ी क्षेत्र को प्रभावित करने वाले इस प्रकार के मुद्दों के लिए तैयार भी है ?
बेहद सरल व सुगम भाषा में एक अत्यंत गंभीर एवं जटिल विषय का सटीक वर्णन क़ाबिले तारीफ़ है।
भू- संरचना तथा क्षेत्रीय – परिस्थितिक सम्बन्धों पर आधारित कृषि-बाग़बानी एक ऐसी जीवन शैली थी जिसे हमारे बुजुर्गों ने सैकड़ों वर्षों की तपस्या से अपनाया था।
यह लेख़ आसानी से समझ आने वाला है और व्यापक रूप से गाँव घर तक बताया जाना चाहिए।
साधुवाद।
पहाड़ों में भूस्खलन को तभी रोका जा सकता है जब बरसाती पानी के बहाव के लिए नालों की उचित व्यवस्था हो आज पहाड़ों में सरकार द्वारा लाखों करोड़ों रुपया व्यय कर रही है पर वह बिना किसी योजना के । हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए गए बरसाती नालों की दुर्दशा हो चुकी है वह सारे नाले खत्म हो चुके हैं अब उनके सिर्फ अवशेष रह गए ना उनकी समय पर कोई मरमत होती है ना कोई सफाई बस पैसा पानी की तरह बहाए जा रहा है । और जिसकी वजह से ही बरसाती पानी इधर-उधर बह रहा है जब धरती अपना आवरण खो देती है तब सरकार लाखों रुपया आपदा के नाम पर खर्च करती है जिससे अधिकारी वह ग्राम प्रधान की मिलीभगत की वजह से बंदरबांट का खेल शुरू हो जाता है
धन्यवाद भुवनेश भाई.
कोशिश हैं कि सन्देश अपनी भू-वैज्ञानिक बिरादरी से आगे जाये और जमीन पर कुछ फ़र्क नज़र आये, निरन्तरता में प्रभावित हो रहे लोगो को ज्यादा नहीं पर कुछ तो राहत महसूस हो.
Sir, it is you only who has always given implementable solutions on ground for landslide mitigation. This kind of work caters to grassroot level solutions. Always love to read your article.
Thank you Shovn Chattoraj. Really speaking remote sensing can help positively assert that this is not a theoretical proposition. Your assistance would be required for doing that.
Rightfully thought.
Our research especially in universities of these regions should take such topics and common areas of interest where scholars investigate from social economic, forestry geology , engineering aspects so in future there are solution oriented outputs.
Terrace farming definitely controls runoff, soil erosion, groundwater recharge and is one important tool of non engineering solution for mitigation.
Remote sensing assessment of the agricultural lands really turning barren could be helpful in taking this further. Moreover, most terraces in the middle slopes can also be identified and that could be the target area for undertaking a pilot.
Excellent analysis of the issue of “migration from Hills” I wish all policymakers do through this article.
Thank you sir for kind and encouraging words. It really means a lot.
Sir you alone can make the policymakers read, understand and implement anything iout of box.
Thanks once again for sparing time and encouraging words.