चुनावी शोरगुल के बीच पिछले कुछ दिनों से एक विषय, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्र के सरोकारों से जुड़ी खबरों में खासा चर्चा में रहा है और उस पर विभिन्न विषयो के विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों के साथ ही जन सामान्य ने भी अच्छी-खासी प्रतिक्रिया की है।
जी हाँ, प्रकरण हिमालयी क्षेत्र में होने वाले निर्माण कार्यो में विस्फोटकों के उपयोग पर प्रतिबन्ध या फिर इनका उपयोग सीमित किये जाने हेतु भारत सरकार के सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के दिनांक फरवरी 15, 2022 के निर्देशों से सम्बन्धित है।
हिमालयी पर्यावरण व पारिस्थिकी तंत्र पर काम करने वाले विशेषज्ञ व संस्थाये लम्बे समय से इस क्षेत्र में हो रहे व प्रस्तावित बड़े निर्माण कार्यो के विरोध के साथ ही विस्फोटकों पर प्रतिबन्ध की मांग कर रहे है और एक हद तक यहाँ का जन-समुदाय भी उनका समर्थन करता रहा है।
ऐसे में हिमालय की संवेदनशीलता को स्वीकारते हुवे विस्फोटकों के उपयोग को सीमित करने का निर्णय निश्चित ही स्वागत योग्य है।
पिछले दिनों में इस विषय पर काफी कुछ लिखा जा चुका है और ऐसे में आपका इस लेख के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाना उचित भी है।
वैसे लिखने को नया कुछ था नहीं, परन्तु विषय पर हो रही चर्चा के बीच हिंदी के एक प्रतिष्ठित अख़बार में छपे लेख में पढ़ा कि, “पहाड़ो पर रास्ता बनाने के लिये किये जाने वाले बड़े-बड़े विस्फोटो से एक तरफ पहाड़ कमजोर होते है, दूसरी तरफ भूकम्प की आशंकाये बढ़ती है।”
सच कहिये तो यह तर्क पचा नहीं।
अतः आत्मसंतुष्टि के लिये विभिन्न भू-वैज्ञानिक संस्थानों के वैज्ञानिको के साथ विषय पर चर्चा करने पर पाया कि यदि सच में कुछ न लिखा गया तो वह इस तथ्य तो स्वीकारने और भ्रांति फैलाने में सहयोग करने के समतुल्य ही होगा।
निर्माण कार्य व विस्फोटक
हिमालयी क्षेत्र में निर्माण छोटा हो या फिर बड़ा – उसके लिये चट्टानों को तोड़ना-काटना तो पड़ता ही है; आखिर निर्माण के लिये कुछ समतल स्थान तो चाहिये। पहले यह सब मजदूरों के द्वारा ही किया जाता था, पर काम में तेजी लाने के साथ ही पैसा बचाने के उद्देश्य से चट्टानों को तोड़ने के लिये विस्फोटकों का उपयोग किया जाने लगा।
सरल शब्दों में कहे तो विस्फोट की प्रक्रिया रासायनिक ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपान्तरित करती है। इस प्रक्रिया में अचानक होने वाले आयतनी फैलाव के कारण कम्पन व ध्वनि उत्पन्न होती है और इसी फैलाव व कम्पन के कारण प्रभावित चट्टानें टूटती भी है।
अब कितनी चट्टानें टूटेंगी व कितना क्षेत्र प्रभावित होगा, वह सब किये जाने वाले विस्फोट के स्तर या परिमाण पर निर्भर करता है।
ऐसे में विस्फोट के स्तर का निर्णय निश्चित ही प्रस्तावित निर्माण कार्य की आवश्यकताओं व चट्टानों कि प्रकृति के आधार पर किया जाना चाहिये, पर हमारे पास इन सब विश्लेषणों के लिये एक तरफ जहाँ विशेषज्ञता, समय व संसाधनों की कमी है तो वही दूसरी ओर विस्फोट के स्तर में बदलाव के भी बहुत ज्यादा विकल्प नहीं है।
ऐसे में विस्फोटकों का अंधाधुंध उपयोग होने लगा, और नतीजे किसी से छुपे नहीं है।
हिमालयी चट्टानें और विस्फोटक
अपनी उत्पत्ति से जुड़ी उथल-पुथल के कारण हिमालयी क्षेत्र की चट्टानें संरचनात्मक रूप से अपेक्षाकृत कमजोर है और नजदीक से देखने पर आपको दूर से काफी मजबूत प्रतीत होने वाली इन चट्टानों में अनेको जोड़, दरारे व सतहें सहज ही नजर आ जायेंगी। और फिर थोड़ा सोच विचार कर हथौड़ा चलाने पर आपको इन्हे सहजता से तोड़ने में देर भी नहीं लगेगी।
सच कहे तो चट्टानों का टूटना या न टूटना, या फिर भू-स्खलन होना या न होना इन जोड़, दरारों व सतहों की प्रकृति व परस्पर संरचनात्मक सम्बन्धो पर निर्भर करता है।
निर्माण कार्यो के लिये किये जाने वाले विस्फोटो के कारण अचानक होने वाला आयतनी फैलाव व कम्पन चट्टानों में प्राकृतिक रूप से अवस्थित जोड़, दरारों व सतहों की प्रकृति के साथ ही इनके आपसी संरचनात्मक सम्बन्धो में बदलाव लाते है, और सच कहे तो यही असल समस्या जी जड़ भी है।
जिन जोड़ व दरारों को प्रकृति लम्बे समय से भरने का प्रयास कर रही थी, विस्फोट के कारण वह फिर से सक्रिय हो सकते है, चट्टानों में नयी दरारे उत्पन्न हो सकती है, पहले से अवस्थित जोड़ व दरारे फैल सकती है और विस्तारित हो सकती है, जोड़ व दरारों के बीच के संरचनात्मक सम्बन्ध बदल सकते है।
इससे कुछ और हो न हो, चट्टानों की मजबूती पर प्रतिकूल प्रभाव अवश्य पड़ता है, और इसके साथ ही भू-क्षरण व भू-स्खलन की सम्भावना भी बढ़ती है।
फिर जोड़ व दरारों के विस्तारित होने व फैलने के साथ ही नयी दरारों के अस्तित्व में आने से चट्टानों के अन्दर पृथ्वी की सतह से पानी का ज्यादा प्रवाह होता है, जिसके कारण एक बार फिर से भू-क्षरण व भू-स्खलन की सम्भावना बढ़ जाती है।
जोड़ व दरारों से चट्टानों के अन्दर रिसने वाला पानी विशेष रूप से उच्च हिमालयी क्षेत्र में रात के समय तापमान में आने वाली गिरावट के कारण जम जाता है और इस प्रक्रिया में होने वाले आयतनी फैलाव से उत्पन्न होने वाला दबाव चट्टानों को तेजी से क्षरित व विखंडित करता है।
अब इतना तो तय है कि निर्माण कार्यो में होने वाले विस्फोटकों के उपयोग से चट्टानों की मजबूती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और भू-क्षरण व भू-स्खलन की सम्भावना बढ़ जाती है, परन्तु भूकम्प की आशंका का क्या ?
विस्फोट और भूकम्प
निर्माण कार्यो में उपयोग में लाये जाने वाले विस्फोटकों की ही तरह भूकम्प में अवमुक्त होने वाली ऊर्जा भी पृथ्वी की सतह पर कम्पन उत्पन्न करती है, पर क्या सच में विस्फोटकों के उपयोग से भूकम्प की आशंका बढ़ सकती है जैसा कि अख़बार में छपे लेख में दावा किया गया है?
भू- वैज्ञानिको से पता चला कि क्षेत्र में आने वाले लगभग सभी भूकम्पों के लिये भारतीय प्लेट का निरन्तरता में उत्तर-उत्तरपूर्व की ओर गतिमान होना ही उत्तरदायी है और इस प्रक्रिया में पृथ्वी की सतह के नीचे चट्टानों में निरन्तरता में जमा हो रही ऊर्जा के अचानक अवमुक्त होने से ही यहाँ भूकम्प आते है।
वैसे भू- वैज्ञानिक यह तो बताते है कि क्षेत्र में बनने वाले बड़े बाँध के कारण भूकम्प की आशंका बढ़ने के प्रमाण मिलते है और हमारे देश का कोयाना बाँध इसका उदहारण है। परन्तु साथ ही यह लोग बताते है कि बाँध के कारण जमा पानी से काफी बड़े इलाके में पड़ने वाले दबाव में परिवर्तन आता है और यह दबाव भी लगातार और लम्बे समय तक लगता है।
भू-वैज्ञानिको व अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि विस्फोटकों के कारण उत्पन्न होने वाले कम्पन सतही होने के साथ ही मात्र कुछ पलो के लिये काम करते है, जबकि भूकम्प कि उत्पत्ति पृथ्वी के अन्दर काफी गहरायी में होती है और यह सतही कम्पन भूकम्प का कारण नहीं बन सकते है।
वर्तमान तक विश्व भर में किसी भी भूकम्प के सतही कम्पनों द्वारा उत्प्रेरित होने के प्रमाण नहीं मिले है और इसलिये पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि विस्फोटकों के उपयोग से भूकम्प की आशंका नहीं बढ़ सकती है।
विस्फोटक और भूकम्पजनित भू-स्खलन
जैसा कि आप सभी जानते है न्यूटन के गति के पहले नियम के अनुसार पहाड़ी ढाल पर पड़ा मलबा कितनी भी असंतुलित स्थिति में क्यों न हो, अपने आप ढाल पर खिसकना आरम्भ नहीं कर सकता है। अतः भू-स्खलन के लिये बाहरी बल की उपस्थिति एक अनिवार्यता है जिसे भूकम्प पूरा करता है।
भूकम्प के कम्पन प्रायः कमजोर व जोड़-दरारयुक्त चट्टानों को तोड़ देते है और ऊँचाई पर स्थित असंतुलित भूखण्डो व मलबे को ढाल की दिशा में खिसकने में मदद करते है। अतः भूकम्प के कारण जहाँ एक ओर पुराने भू-स्खलन सक्रिय होते है, वही दूसरी ओर नये भू-स्खलन भी उत्पन्न होते है।
8 अक्टूबर, 2005 के 7.6 परिमाण के मुजफ्फराबाद व 12 मई, 2008 के 7.9 परिमाण के सिचुवान भूकम्पों के बाद पाकिस्तान व चीन में भू-स्खलनों के कारण हुयी तबाही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सिचुवान भूकम्प के द्वारा सक्रिय हुवे भू-स्खलनों के कारण जल धाराओं के बाधित होने से प्रभावित क्षेत्र में 34 झील बन जाने से त्वरित बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया था।
इससे पहले 16 दिसम्बर, 1920 को चीन के ही कानसू प्रान्त में आये 7.9 परिमाण के भूकम्प के द्वारा उत्पन्न भू-स्खलनों की वजह से लगभग 2,00,000 व्यक्ति मारे गये थे और सुजिहे शहर पूरी तरह से मलबे में दब गया था।
अंत में
ऊपर दिए गये उदाहरणों के साथ ही भू-स्खलन के लिये उत्तरदायी कारको की समझ के आधार पर सभी भू-वैज्ञानिको का मानना है कि निर्माण कार्यो के लिये वर्तमान में उपयोग में लाये जाने वाले विस्फोटक क्षेत्र में भू-स्खलन होने की सम्भावना को बढ़ाते है।
परन्तु साथ ही सभी भू-वैज्ञानिको एकमत है कि विस्फोटकों के उपयोग से भूकम्प की आशंका निश्चित ही नहीं बढ़ती है, पर उनका मानना है कि इससे भूकम्प के समय भू-स्खलन का खतरा अवश्य बढ़ जाता है।
ऐसे में निर्माण कार्यो में विस्फोटकों के उपयोग को सीमित करने का निर्णय निश्चित ही सराहनीय पहल है और इससे एक ओर जहाँ पर्यावरणीय क्षति में कमी आयेगी वही दूसरी ओर क्षेत्र में भू-स्खलन का खतरा भी कम होगा।
वर्तमान में एक वर्ग इस निर्णय से निर्माण कार्यो की लागत में सम्भावित वृद्धि के प्रति चिंतित है परन्तु सरकार का यह निर्णय निश्चित ही नये, पर्यावरण अनुकूल व सस्ते विकल्प उपलब्ध करवाने की आवश्यकता की ओर वैज्ञानिको व उद्योगों, दोनों का ही ध्यान आकर्षित करेगा और जल्द ही यह विकल्प हमें उपलब्ध होंगे।
आखिर आवश्यकता ही तो अविष्कार की जननी है।
भूपेन्द्र नेगी says
सही व सटीक जानकारी के लिये धन्यवाद.
Crisp and to the point- that is appreciated. Moreover, right information needs to be promoted at all cost.
लिखने वाले को लिखने का बहाना चाहिये. सरल शब्दों में सही जानकारी देने के लीये शुक्रिया.
सटीक तथ्यों और तर्कसंगत आलेख.