कहाँ तक तो शायद किसी को नहीं पता, पर गंगा किनारे बसे उस गाँव के पंडित जी थे काफी पढ़े-लिखे व ज्ञानी।
लोगो का मानना था कि उन्होंने छोटी उम्र में ही वेद-पुराण सब कंठस्त कर लिये थे। फिर ज्योतिष व ग्रह-नक्षत्रो की चाल पर भी उनकी गहरी पकड़ थी।
कुंडली और हाथ तो जाने ही दो, वो तो माथे की लकीरें पढ़ कर ही आगे-पीछे का सारा हाल बता देते थे।
किसी को याद नहीं कि कभी उनका कहा जरा सा भी गलत निकला हो। तभी तो हर कोई उनके मुँह से निकली हर बात को पत्थर की लकीर से कम नहीं मानता था।
साथ ही वाकचातुर्य भी गजब का था उनमें और फिर उदाहरणों व दलीलों का तड़का ऐसा कि किसी को भी बगलें झाँकने पर मजबूर कर दे।
ऐसे में शादी-ब्याह हो या नामकरण, यज्ञोपवीत या फिर मुंडन; आस-पड़ोस के गाँवो में ये सब कब होंगे पंडित जी की उपलब्धता पर निर्भर करता था। किसी और से यह सब करा कर कोई भी पंडित जी का कोपभाजन जो नहीं बनना चाहता था। हर किसी को यही डर रहता था कि कहीं पंडित जी की जुबान से उसके लिये कुछ गलत ना निकल जाये।
फिर पंडित जी का नाम इतना था कि दूर दराज के लोग भी भविष्य जानने व राय-मशवरा करने के लिये उनकी शरण में आते थे।
ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि पूरे इलाके में पंडित जी का एकछत्र राज था।
अब ऐसे में अपने आप पर, अपनी विद्या व अपने ज्ञान पर गरूर होना स्वाभाविक हैं। सो पंडित जी इस सब से अछूते कैसे रह पाते।
वैसे कहने को तो पंडित जी की ही तरह रामू भी पूरे गाँव में अकेला था और काम कोई भी या कितना भी जरूरी क्यों न हो, उसके बिना गंगा पार जाना किसी के बस की बात नहीं थी।
गाँव का अकेला मल्लाह जो था रामू।
स्वभाव की बात करें तो रामू पंडित जी के ठीक उलट था – मितभाषी व अपने काम से काम रखने वाला।
सूरज उगने के साथ ही रामू गंगा किनारे पहुँच जाता था और दिन ढलने तक लोगो को अपनी नाव में इस पार से उस पार, उस पार से इस पार। यही उसकी दिनचर्या थी।
कौन, कहाँ, किस काम से और कितने दिन के लिये जा रहा है- इससे रामू को कोई भी सरोकार नहीं होता था। याद नहीं आता, शायद ही कभी उसने किसी से इस सब के बारे में कुछ भी पूछा हो।
पंडित जी की ही तरह गाँव वाले रामू के स्वभाव से भी भली भाँति परिचित थे। तभी तो हर कोई रामू से बस काम की ही बातें करता था। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि गाँव वाले रामू को पसन्द नहीं करते थे। बस वो सभी उसके स्वभाव को जानते थे और उसकी इज्जत करते थे।
उस दिन सुबह से ही आसमान में घने बादल लगे थे, और हवा भी कुछ ज्यादा ही तेज थी।
तभी तो गंगा में लहरें भी अपेक्षाकृत ऊंची उठ रही थी, और किनारे बंधी रामू की नाव रह रह कर हिचकोले खा रही थी।
“शायद शाम तब बारिश भी हो ही जाये”, ऊपर आसमान की ओर देख कर रामू ने अन्दाजा लगाया।
शायद मौसम की वजह से हो, पर उस दिन घाट पर रौनक बिल्कुल भी नहीं थी।
अब बाँकी की सवारियाँ हो या न हो, पंडित जी तो थे और रामू उन्हें ज्यादा इंतजार भी तो नहीं करवा सकता था। फिर उसे अन्दाजा तो था ही कि पंडित जी किसी ना किसी जरूरी काम से ही जा रहे होंगे, और ऐसे में देरी होने पर उनका मिजाज बिगड़ने का खतरा उठा सकने की कुव्वत रामू में नहीं थी।
सो रामू ने कुछ देर सवारियों का इंतजार किया, और फिर अकेले ही पंडित जी को ले कर निकल पड़ा।
कुछ देर तो ठीक रहा पर जल्द ही नाव पर पसरा सन्नाटा पंडित जी को अखरने लगा। उन्हें ऐसे चुपचाप बैठने की आदत जो नहीं थी।
अब ऐसा भी नहीं कि पंडित जी पहली बार रामू की नाव में गंगा पार कर रहे थे, पर अकेले रामू के साथ नदी पार करने का यह उनका पहला अवसर था।
नाव में और लोग भी होते तो कोई न कोई पंडित जी के सानिध्य का लाभ उठाने के लिये कुछ न कुछ तो पूछ ही लेता, और उसी में पंडित जी का समय कट जाता; पर उस दिन का माजरा एकदम अलग था।
पंडित जी को भी कुछ सूझ नहीं रहा था, और रामू के स्वभाव से वह परिचित ही थे।
फिर भी यूँ ही समय काटने के लिये पंडित जी ने बातो का सिलसिला शुरू कर ही दिया।
पंडित जी – हाँ, तो नाम क्या है तुम्हारा?
यह प्रश्न कुछ अजीब सा लगा था रामू को। गाँव में पंडित जी समेत सभी उसे अच्छे से जानते जो थे। और फिर वो भी न जाने कितनी बार पंडित जी को गंगा पार करा ही चुका था।
फिर भी पंडित जी कुछ पूछ रहे हों और जवाब न दिया जाये, यह भी तो मुनासिब नहीं था। सो कुछ देर रुक कर रामू ने जवाब दे ही दिया, “जी, रामू”
पंडित जी ने बातो का सिलसिला आगे बढ़ाते हुवे पूछा, “नाव चलाते हो?”
रामू – जी।
पंडित जी – और कुछ?
रामू से कोई जवाब न पा कर पंडित जी ने फिर से पूछा, “ज्योतिष या नक्षत्र विज्ञान भी पढ़े-बूझे हो क्या कभी कुछ?”
“नहीं पंडित जी”, रामू में सीधे सपाट लहजे में जवाब दिया।
पंडित जी – तब तो रामू, तुम्हारी एक चौथाई जिन्दगी यूँ ही बर्बाद हो गयी।
पंडित जी के लहजे में कटाक्ष के पुट को रामू ने सहज ही महसूस कर लिया था।
पर संयत रहते हुवे रामू ने पंडित जी की बात स्वीकार कर ली, “जी”
उसके बाद पंडित जी ने बात आगे बढ़ाते हुवे मुस्कुराते हुवे पूछा, “ज्योतिष व नक्षत्र विज्ञान नहीं तो ना सही. पर वेद, शास्त्र, उपनिषद – कुछ तो बूझे ही होगे?”
पंडित जी का आशय समझ जाने के बाद भी रामू ने कोई अवांछित प्रतिक्रिया न करते हुवे फिर से अपनी कमजोरी स्वीकार कर ली और कहा, “जी नहीं”
पंडित जी – यह सब भी नहीं? क्या भाई, ऐसे में तो बाकी बची जिन्दगी का एक चौथाई फिर से बर्बाद।
रामू – जी।
इसके बाद पंडित जी की प्रतिक्रिया से खिन्न रामू ने अपना पूरा ध्यान तेज होती हवा के साथ तेजी से बढ़ रही लहरों व हिचकोले खा रही नाव पर लगा दिया।
अब तक पंडित जी को भी समझ में आ चुका था कि रामू से पार पा सकना सरल नहीं हैं। सो उन्होंने भी गंगा पर पहुंच कर आगे किये जाने वाले कामों को दोहराना आरम्भ कर दिया। हाँ, बीच-बीच में वह खनकियो से रामू की तरफ देख जरूर लेते थे।
तभी पाँव के तलवे पर पानी का सा एहसास होने पर रामू का ध्यान चप्पू व लहरों से हट कर नाव के तले में नीचे से रिस कर धीरे – धीरे इकठ्ठा हो रहे पानी पर गया।
रामू को लगा कि शायद कोई जोड़ खुल गया होगा।
“अभी कुछ ही दिनों पहले तो मरम्मत करवायी थी, फिर कैसे?”
फिर शायद पंडित जी की सुरक्षा के बारे सोच कर या फिर ऐसे ही उत्सुकतावश रामू का ध्यान पंडित जी की तरफ गया जो शायद गंगा में उठ रही लहरों को गिनते हुवे दिन भर किये जाने वाले कार्यो को दोहरा रहे थे।
नाव के तले में जमा हो रहे पानी को देख कर रामू के दिमाग में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे, और शायद वह गंगा की लहरों के सापेक्ष अपनी नाव की क्षमता के साथ ही अपनी व पंडित जी की सुरक्षा का आंकलन भी कर रहा था।
जमा हो रहे पानी में हो रहो बढ़त के सापेक्ष नाव की दूसरे पाट से दूरी व नाव की गति के आंकलन ने शायद रामू को सुरक्षा की प्रति आश्वस्त कर दिया था। पर तभी कुछ समय पहले पंडित जी द्वारा कही बातो को याद कर कुछ ऐसा हुवा जिससे उसके चेहरे पर अचानक मुस्कराहट तैर गयी।
फिर कुछ देर पंडित जी की ओर देखने के बाद उसने पूछ ही लिया, “पंडित जी, तैरना तो जानते ही होंगे?”
शायद इतना समय उसने अपने प्रश्न की रूपरेखा तैयार करने और पंडित जी की प्रतिक्रिया का आंकलन करने के लिये लिया था।
पर पंडित जी तो अपने खयालो में डूबे थे और उन्हें रामू से ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं थी। सो अचानक रामू की आवाज से वह सकपका से गये।
रामू द्वारा कही गयी बात का तात्पर्य ना समझ पाने के कारण पंडित जी ने बात दोहराये जाने के आशय से पूछा, “क्या कहा तुमने? मुझे कुछ समझ नहीं आया।”
“बस पूछ रहा था कि आपको तैरना तो आता हैं ना?”, मुस्कुराते हुवे रामू ने अपना प्रश्न दोहराया।
रामू से इस प्रकार के प्रश्न की पंडित जी को कतई उम्मीद नहीं थी।
“नहीं. क्यों क्या हुवा?”, किसी अनिष्ट की आशंका से इधर-उधर देख कर स्वयं को आश्वस्त करने की कोशिश करते हुवे पंडित जी ने उत्तर दिया।
शायद रामू को पंडित जी से ऐसे ही उत्तर की अपेक्षा थी। सो उसने मुस्कुराते हुवे अपनी नजर नाव के तली में जमा हो रहे पानी से हो कर पंडित जी पर टिकाते हुवे कहा, “तब तो पंडित जी आपकी सारी की सारी जिन्दगी बर्बाद, और वो भी एक साथ।”
रामू की घूमती नजरो के पीछे-पीछे पंडित जी की नजर भी नाव की तली में जमा हो रहे पानी पर पड़ ही गयी और उन्हें माजरा समझते देर नहीं लगी।
सो पंडित जी एकदम से सुन्न पड़ गये – काटो तो खून नहीं। इसके बाद पंडित जी कतार दृष्टि से सहायता के लिये रामू की ओर देखने लगे।
पंडित जी की हालत बिगड़ती देख रामू भी सकपका गया। फिर स्थिति को सामान्य करने के इरादे से हॅसते हुवे बोला, “कुछ ज्यादा परेशानी नहीं हैं पंडित जी, किनारे तक पहुँच ही जायेंगे।”
इतना कह कर रामू ने किनारे रखा टीन का डब्बा उठाया और नाव की तली में जमा हो रहे पानी को बाहर गंगा जी में उड़ेलने में व्यस्त हो गया।
इस घटना से पंडित जी का अपने ज्योतिष व ग्रह-नक्षत्रो के ज्ञान से विश्वास डोला या नहीं, यह तो नहीं पता पर उस दिन रामू के द्वारा तेजी से हिचकोले खा रही नाव में गंगा पार सुरक्षित उतारे जाने के बाद पंडित जी को यह जरूर समझ में आ गया कि दुनिया में बहुत कुछ ऐसा हैं जिसके बारे में वो अनजान हैं।
अब रामू किसी को कुछ बताता तो है नहीं, सो इस घटना के बारे में पंडित जी के आलावा किसी को कुछ नहीं पता।
सो उस दिन के बाद से पंडित जी के व्यवहार में आये परिवर्तन को ले कर लोगों के बीच कई तरह की बातें जरूर थी।
किसी के लिये यह ग्रह-नक्षत्रों का खेल था, तो किसी के लिये पंडित जी का परमात्मा से साक्षात्कार।
पर सच तो केवल दो लोग जानते थे; रामू मल्लाह और खुद पंडित जी।
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