संता – भाई, क्या आपदा के कारण होने वाले नुकसान के लिये हमारी जानबूझ कर जोखिम लेने की आदत उत्तरदायी नहीं हैं?
बंता – सो तो हैं, पर यह हमें प्रकृति द्वारा दिया गया वरदान भी तो हैं।
संता – वरदान?
बंता – इसे सकारात्मकता या फिर Positivity Bias कहते हैं, और इसके चलते हमें लगता हैं कि हमें कुछ नहीं होगा। चाहे जो हो जाये, हम सुरक्षित रहेंगे।
संता – वो तो ठीक हैं, पर वरदान का क्या?
बंता – हाँ, इसके बिना तो हम आज भी पेड़ो में ही रह रहे होते।
आखिर हमारे पास कोई विशेष हुनर तो था नहीं – ना शिकार करने के लिये पैने, बड़े दाँत या पंजे थे, और ना ही बच पाने के लिये फुर्ती या तेजी।
ऐसे में इस सकारात्मकता के बिना हमारे पूर्वज कभी भी पेड़ो की सुरक्षा छोड़ कर शिकारियों से अटी पड़ी जमीन पर नहीं उतर पाते।
संता – वो तो ठीक हैं, पर यह तो शतुरमुर्ग की तरह सिर को रेत में छुपा लेना ही हुवा ना? अब इससे खतरे तो कम नही होते।
बंता – सो तो हैं, पर खतरों की बात करें तो इनका आभास करने का गुण भी दिया हैं हमें प्रकृति ने।
संता – सच में?
बंता – अब साँप को देख कर डरना तो हमें कोई नहीं सिखाता?
यह तो बस हम सभी को अपने आप मालूम होता हैं कि साँप नुकसान पहुँचा सकता हैं।
संता – साँप तो चलो ठीक हैं, पर आपदाओं का क्या?
बंता – आपदाओं का खतरा भी हम ज्यादातर परिस्थितियों में भाँप ही लेते हैं।
कम से कम उन आपदाओं का तो जरूर ही, जो प्रायः हमारे आस-पास घटित होती रहती हैं।
संता – क्या कह रहे हो भाई? आपदाओं का खतरा भाँप लेते हैं, और फिर भी बचने के लिये कुछ नहीं करते?
बंता – यहीं तो दुविधा हैं।
आज विभिन्न कारणों से जीवन-यापन के साधन अधिक जोखिम वाले इलाको में केन्द्रित हो कर रह गये हैं, और ऐसे में इन इलाको में रहना हमारी मजबूरी बन गया हैं।
संता – पर हम खतरा तो भाँप जाते हैं ना?
और जिन्दा बचे रहना तो हमेशा से हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता रही हैं।
बंता – वो तो ठीक हैं, पर ये जो सकारात्मकता हैं न, हमें आश्वस्त करती रहती हैं कि इससे हमें कुछ नहीं होगा।
संता – मतलब कि हम जानबूझ कर जोखिम लेते हैं?
बंता – एकदम सही कहा तुमने।
हमें स्पष्ट पता होता हैं कि भू-स्खलन, बाढ़ या फिर भूकम्प का खतरा हैं।
पर साथ ही हम आश्वस्त भी होते हैं कि इससे हमें कुछ नुकसान होने से रहा।
संता – ऐसे में तो हम सुरक्षा के लिये कुछ करेंगे ही नहीं?
बंता – वही तो।
जब हमें कुछ होना ही नहीं हैं, तो सुरक्षा पर निवेश करने का औचत्य ही क्या रह जाता हैं।
यह सब तो ठाकुर साहिब, मौलवी, पंडित जी या फिर तुम्हारे लिये हैं।
आखिर आपदा में नुकसान तो इन्ही सब का तो होने वाला हैं।
हमें तो कुछ होना नहीं हैं, सो हमारे लिये यह सब बेमानी हैं।
संता – शायद तभी हम हेलमेट या सीट बेल्ट नहीं लगाते हैं, लापरवाही से, तेज व यहाँ तक कि शराब पी कर गाड़ी चलाने तक से परहेज नहीं करते हैं।
हद तो तब हो जाती हैं जब दुनिया भर को उपदेश देने के बाद हम अपने खुद के घर में भूकम्प सुरक्षित निर्माण तकनीक का उपयोग नहीं करते हैं, और अपने घर का आपदा बीमा भी नहीं करवाते हैं।
बंता – यही तो असल विडम्बना हैं मेरे भाई।
संता – मतलब की जोखिम लेना प्रकृति ने हमारे आचार-व्यवहार व मानसिकता में कूट-कूट के भर रखा हैं।
ऐसे में तो हम कुछ भी कर ले, हालात बदलने से रहे।
बंता – अब ऐसा भी नहीं हैं, पर हजारों सालो की इस नेमत से रातो रात तो निजात मिलने से रही।
लगातार, ईमानदार और जोरदार प्रयास करने होंगे।
संता – पर सफलता की क्या गारन्टी हैं?
बंता – यहाँ गारन्टी देता कौन हैं भाई?
पर हमने अपने जीवनकाल में काफी कुछ बदलते देखा हैं।
संता – क्या बदलते देख लिया तुमने?
बंता – अभी हाल तक हमें हर हाल एक अदद लड़का चाहिये होता था, उसके बिना मोक्ष जो नहीं मिलना था।
साथ ही परिवार नियोजन हमारे लिये दूर की कौड़ी थी।
हमारे साथ में ही कई थे, जो 4-5 बहनों के बाद पैदा हुवे थे।
सच कहूँ तो रश्क़ होता था उनसे – राजकुमारों जैसा दर्जा जो होता था उनका।
पर आज स्थितियाँ बदल चुकी हैं।
आज तुम्हारे-मेरे कई जानने वाले हैं जिनकी एक अकेली लड़की हैं, और उन्हें इसका कोई अफसोस भी नहीं हैं।
संता – सो तो हैं।
बंता – पर यह सब रातो-रात तो हुवा नहीं।
जब हम छोटे थे, तब हर दूसरा विज्ञापन परिवार नियोजन का होता था।
हर सड़क, दीवार, चौराहा लाल तिकोण, कॉपर टी व निरोध के विज्ञापनों से अटा पड़ा रहता था, और ऐसा दसियो सालो तक चला।
आज 40-45 साल बाद भी इस तरह के विज्ञापन तुम्हे दिखाई दे जाते होंगे, पर यह सब प्रोडक्ट बेचने के लिये हैं परिवार नियोजन के लिये.
संता – सच में।
आज हम-आप सभी मेज पर बैठ कर छुरी-काँटे से खाना भी तो खाने लगे हैं।
और फिर आज हम में से कोई भी यह भी नहीं पूछता कि खाना बनाने वाले की जात क्या हैं।
बंता – सही कहा तुमने, आपदा सुरक्षा का स्वैच्छिक अनुपालन हमारी मानसिकता से जुड़ा हैं।
और मानसिकता में बदलाव लाने के लिये हमें लम्बे समय तक एक सोची-समझी रणनीति के अनुरूप, रातो-रात परिणाम की अपेक्षा किये बिना, आक्रमक जन जागरूकता कार्यक्रम चलाना होगा।
संता – सच में दो-चार दिनों के नीरस व मौसमी विज्ञापनों से तो कुछ होने से रहा।
Leave a Reply