आपदाओं के कारण जीवकोपार्जन व आय के साधनो को होने वालो क्षति प्रायः प्रभावित परिवारों के जीवन की गुणवत्ता (quality of life) पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव डालती है। यह प्रभाव विशेष रूप से निम्न आय व सामाजिक स्तर वाले समुदायों पर अत्यधिक तीक्ष्ण होता है और इन्हे आपदाओं के प्रभावों से उबरने में काफी लम्बा समय लग जाता है।
वैसे देखा जाये तो बीमा (insurance) आपदाओ से होने वाली क्षति की भरपाई का एक अच्छा विकल्प है, परन्तु हमारे देश में न ही बीमा की अच्छी पकड़ है, और न ही यह निम्न आय वाले समुदायों में लोकप्रिय हैं।
हमारे देश में वैसे तो आपदाओं से होने वाली क्षति के सापेक्ष सरकार भी प्रभावित परिवारों को राहत (relief) देती है परन्तु यह राहत पशुधन के अतिरिक्त अन्य व्यावसायिक संसाधनों (commercial assets) को होने वाली क्षति के लिये अनुमन्य नहीं है। फिर सरकार के द्वारा दी जाने वाली राहत राशि भी आपदा के कारण क्षतिग्रस्त हो गये जीवकोपार्जन व आय के साधनो के बाजार भाव से काफी कम ही होती हैं। ऐसे मेँ आपदा के कारण नियमित आय के बाधित हो जाने के उपरान्त राहत राशि का उपयोग परिवार की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये करने के अलावा निम्न आय व सामाजिक स्तर वाले परिवारो के पास सामान्यतः दूसरा कोई विकल्प नहीं होता है।
फिर सामाजिक – आर्थिक कारणों से प्रायः असुरक्षित स्थानों पर अवस्थित होने के कारण आपदाओं से इन समुदायों का ही सर्वाधिक नुकसान होता हैं। आपदा के कारण आय के बाधित हो जाने के बाद इन समुदायों की छोटी – बड़ी बचत भी परिवार के भरण – पोषण में ही खर्च हो जाती है।
ज्यादातर स्थितियों में औपचारिक वित्तीय उपक्रम (financial institutions) भी इन समुदायों की मदद करने से कन्नी काट लेते है।
उत्तराखण्ड राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (USDMA) के सुशील खण्डूरी व पीयूष रौतेला द्वारा 2013 की आपदा के प्रभावितो पर किया गया शोध यही सब दर्शाता है और इनकी संस्तुति है कि जीवकोपार्जन व आय के साधनो को होने वालो क्षति के सापेक्ष नकद राहत (cash relief) के स्थान पर वित्तीय संस्थानों की संलिप्तता (involvement) से इन संसाधनों की प्रतिपूर्ति की व्यवस्था की जानी चाहिये और साथ ही इन साधनो को बीमा से आच्छादित किया जाना चाहिये ताकि भविष्य में इन समुदायों के जीवन की गुणवत्ता पर आपदाओं का कम से कम प्रभाव पड़े।
Academic Platform Journal of Natural Hazards and Disaster Management (2021, 2:2, 74-84) में प्रकाशित सुशील खण्डूरी व पीयूष रौतेला के इस अध्ययन से जुड़े अन्य पक्षों के बारे में जानने के लिये नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करे:
http://dx.doi.org/10.52114/apjhad.981729
Economic impact of disaster and utilisation pattern of the relief received by the disaster victims is assessed by Sushil Khanduri and Piyoosh Rautela of Uttarakhand State Disaster Management Authority (USDMA) by means of a semi-structured questionnaire and focused discussions in Rudraprayag district of Uttarakhand in India that was devastated by floods in June, 2013.
The researchers observe that in the absence of popularity of risk transfer tools the disaster affected population, particularly those engaged in petty business and representing weaker sections of the society, find it hard to replenish their productive assets lost in the disaster. The researchers attribute this to (i) relief amount being significantly less than market value of lost assets, (ii) limited savings, (iii) compulsion of spending the relief amount on non-productive household purposes owing to reduced income in the post-disaster phase, and (iv) poor assess to institutional financing.
The researchers therefore suggest that the state should initiate an organised scheme with the involvement of financial institutions to ensure replenishment of productive assets lost in disaster incidences, rather than providing cash relief.
The researchers at the same time suggest that the assets so created be invariably insured through organisational asset replenishment financing mechanism, as the voluntary adoption of risk transfer tools is unlikely to come by soon.
This according to the researchers would ensure smooth post-disaster recovery besides reducing the burden on public exchequer.
To get to know the details of the study that has been published by the researchers in Academic Platform Journal of Natural Hazards and Disaster Management (2021, 2:2, 74-84) please go to the link below:
http://dx.doi.org/10.52114/apjhad.981729
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